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अपभ्रंश साहित्य की पृष्ठभूमि
मूर्त प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित थीं। इस के पश्चात् साधारण जनता में यह मूत्ति-पूजा निरी जड़-पूजा के रूप में रह गई । मुसलमानों की धर्मान्धता ज्यों-ज्यों मूत्तियों को तोड़ने में अग्रसर हुई त्यों-त्यों मूत्तियों की रक्षा की भावना भी जड़ पकड़ती गई और आते-आते प्रायः इस शती के अन्त में लोग मूर्ति को ही सब कुछ समझने लगे। पूजा में आडम्बर आ गया। अनेक प्रकार के कुत्सित मार्ग धर्म-मार्ग के नाम से चल पड़े। कर्मकाण्ड का जंजाल खड़ा हो गया जिससे धर्म का प्रान्तरिक रूप लुप्त हो गया और केवल वाह्य-रूप ही प्रधान माना जाने लगा। पौराणिक धर्म के इस अर्थहीन क्रियाकलाप का अनुष्ठान सबके लिए संभव न था। इस प्रवृत्ति के विरुद्ध देश में एक लहर चली जिसके प्रवर्तक मुख्यतः सन्त लोग थे। इन्होंने धर्म के इस क्रिया-कलापपरक वाह्य-रूप की अपेक्षा भक्ति-भाव-परक अान्तरिक-रूप पर जोर दिया। इस्लाम के सूफ़ी सम्प्रदाय ने भी यही किया। इन सन्तों ने भक्ति के लिए जात-पाँत की संकीर्णता को दूर कर धर्म का मार्ग प्रशस्त किया।
आठवीं शती के आरम्भ में ही अरबों के भारत प्रवेश से भारत और बगदाद में संपर्क स्थापित हो गया था। बगदाद के खलीफाओं के समय अनेक भारतीय विद्वान् बगदाद बुलाये गये और वहां जाकर उन्होंने भारतीय दर्शन, वैद्यक, गणित और ज्योतिष के अनेक ग्रंथों के अरबी अनुवाद में सहयोग दिया।
यद्यपि ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अरब भारत में प्रविष्ट हो गये थे तथापि १० वीं शताब्दी तक वे सिन्ध और मुल्तान से आगे न बढ़ पाये थे। किन्तु ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही लाहौर में भी मुस्लिम राज्य स्थापित हो गया। सूफियों का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव मुस्लिम संस्कृति के भारत में प्रवेश होने से ही पड़ा। १२ वीं शताब्दी के अंत में दिल्ली और कन्नौज भी इस्लाम झंडे के नीचे चले गये । मुस्लिम शासकों के आक्रमणों और मंदिरों को लूटने का जो परिणाम हुआ उसका प्रभाव हिन्दू संतों पर भी पड़ा। इस्लाम की प्रतिष्ठा हो जाने पर भी अनेक हिन्दू और मुस्लिम संत ऐसे थे जिन्होंने दोनों के भेद-भाव को मिटाने का प्रयत्न किया। इन्होंने परलोकवाद और मानव की सहज-सहृदयता के आधार पर दोनों को, भेदभाव दूर करने का उपदेश दिया। सामाजिक अवस्था
इस काल में प्रत्येक वर्ग अनेक जातियों और उपजातियों में विभक्त हो गया था। यह भेदभाव धीरे-धीरे निरन्तर बढ़ता ही गया। परिणामस्वरूप समस्त जाति इतनी शिथिल हो गई कि वह मुसलमान आक्रान्ताओं का सामना सफलता के साथ न कर सकी।
मुख्यतया प्रत्येक वर्ण स्मृति-प्रतिपादित धर्म का ही अनुष्ठान करता था किन्तु ब्राह्मण अपने पुरोहित-कर्म के अतिरिक्त अन्य वर्गों के पेशे को भी स्वीकार करता था और क्षत्रिय भी अपने कर्तव्य के साथ-साथ शास्त्र-चिन्तन में लीन था। अनेक राजपूत शासक अपने बलपराक्रम के अतिरिक्त अपनी विद्या और पाण्डित्य में भी प्रसिद्ध हुए।