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अपभ्रंश महाकाव्य
किया है । ऐसे निर्वेद भाव के स्थलों में ही पउम चरिउ के कवि ने शान्त रस अभिव्यक्त किया है। उदाहरणार्थ
"विरहाणल - जाल - पलित-तणु, चितेवए लग्गु विसण्णमणुं। सच्चर संसारि ण अत्यि सह, सच्चउ गिरि-मेरु-समाण दुहु। सच्चउ जर-जम्मण-भउ, सच्चउ जीविउ जलविदु सउ। कहो घर कहो परियणु बंधु अणु, कहो माय वप्पु कहो सुहि-सयणु । कहो पुत्त-मित्त कहो किर घरिणि, कहो भाय सहोयर कहो बहिणि। फल जाव ताव बंधव सयण, मावासिय पायवि जिह सउण।"
प०१० ३९. ११ अर्थात् विरहानल-ज्वाला से ज्वलित और विषाद युक्त मन वाले राम इस प्रकार सोचने लगे-सत्य ही संसार में कहीं सुख नहीं, सच है कि मेरु पर्वत के समान अपरिमित दुःख हैं । सच ही जरा जन्म मरण का भय लगा रहता है और जीवन जल-विन्दु के समान है । कहाँ घर, कहां परिजन, बंधु बांधव, कहाँ माता पिता, कहां हितैषी स्वजन ? कहां पुत्र मित्र, कहाँ गहिणी, कहां सहोदर, कहाँ बहिन ? जब तक संपत्ति है तभी तक बंधु स्वजन हैं। ये सब वृक्ष पर पक्षियों के वास के समान अस्थिर हैं।
इसी प्रकार २२.५ में भी शान्त रस की अधिव्यक्ति कवि ने की है।
श्रृंगार रस में कवि ने सीता के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए परंपरागत उपमानों का प्रयोग किया है
थिर कलहंस-गमण गइ-मंथर। किस मज्झारे णियंबे सुवित्थर । रोमावलि मयरहरुत्तिण्जी । गंपिपिलि-रिछोलि विलिण्णी।
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रेहइ वयण-कमल अकलंकउ । णं माणस-सर विअसिउ पंकउ ।
घोलह पुटिठहि वेणि महाइणि । चंदण लयहि ललइ णं णायणि । पत्ता- कि बहु जंपिएण तिहिं भुयणिहिं जं जं चंगउ । तं तं मेलवेवि णं, दइवें णिम्मिउ अंगउ ॥
प० च० ३८. ३ उपयुक्त वर्णन में कलहंसगमना, कृशमध्या, विशालनितंबा आदि विशेषण परंपरामुक्त हैं। मुख को कमल से, पीठ पर लहराती वेणी को चंदनलता पर लिपटी नागिनी से उपमा देकर जहाँ परंपरा का पालन किया है वहाँ रोमावलि की पिपीलिका पंक्ति से उपमा देकर कवि ने लौकिक निरीक्षण-पटुता का भी परिचय दिया है। इन सब विशेषणों से सीता के स्थूल अंगों का चित्र ही हमारी आंखों के सामने खिंचने लगता है, उसके आन्तरिक सौन्दर्य का कुछ आभास नहीं मिलता । अन्तिम घत्ता में कालिदास के शकुन्तला वर्णन का आभास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।