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अपभ्रंश-महाकाव्य
११९ भी उपलब्ध है। किंतु उस ग्रंथ में कवि ने न तो रचनाकाल का निर्देश किया है और न अपने गुरु के नाम का । अतः निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पूर्व निर्दिष्ट दोनों ग्रंथों के रचयिता और चन्द्रप्रभ चरित के रचयिता एक ही यशः कीत्ति हैं या भिन्न भिन्न ।
पांडव पुराण की रचना कवि ने नवगाव नयर (नगर) में अग्रवाल कुलोत्पन्न वील्हा साहु के पुत्र हेमराज के अनुरोध से की थी। सन्धिओं की पुष्पिकाओं में भी हेमराज का नाम मिलता है और इन्हीं पुप्पिकाओं से प्रतीत होता है कि यशः कीत्ति गुण कीति के शिष्य थे। प्रत्येक सन्धि के आरम्भ में कवि ने संस्कृत में हेमराज की प्रशंसा और मंगल कामना की है। प्रत्येक सन्धि की समाप्ति पर सन्धि के स्थान पर कवि ने 'सग्ग' शब्द का प्रयोग किया है। जैसे
'कुरुवंस गंगेय उप्पति वण्णणो नाम पठमो सग्गो।'
१. चन्द्र प्रभ चरित के लिये देखिये आगे ७वां अध्याय-अपभ्रंश खंड
काव्य (धार्मिक) २. इय चितंतउ मणि जाम थक्कु, ताम परायउ साहु एक्कु ।
इह जोयणि पुरु वहु पुरहं सारु, धण, धण्ण सुवण्ण परेहि फार।
सिरि अयर वाल वंसहं पहाणु, जो संघहं बछलु विगयमाणु । तही गंदणु वोल्हा गय पमाउ, नव गाव नयरे सो सई जि आउ।
तहो गंदणु णंदणु हेमराउ, जिण धम्मोवरि जमुणिव्वभाउ।
३. इय पंडव पुराणे सयल जण मण सवण सुहयरे, सिरि गुण कित्ति सोस मुणि
जस कित्ति विरइये, साधु वील्हा पुत्त रायमंति हेमराज णामंकिए .....
इत्यादि। ४. श्रीमान संताप करोरु धामा, नित्योदयो द्योतित विश्वलोकः । कुर्याज्जिना पूर्ब रविर्मनोज्जे, श्री हेमराजस्य विकाश लक्ष्मं ॥१
दान शृखलया बद्धा चला ज्ञात्वा हरि प्रिया । हेमराजेन तत्कीति रे दूरे पलायिता ॥२
द्वितीय सन्धि यस्य द्रव्यं सुपात्रेषु यौवनं स्वस्त्रिपां भवेत् । भूति य (4) स्य परार्थेषु स हेमाख्यो तु नंदतु ॥
चतुर्थ सन्धि कल्पवृक्षा न दृश्यन्ते कामधेन्वादयस्तया । दृश्यते हेमराजो हि एतेषां कार्य कारकः ॥
१६वीं संधि