________________
१२०
अपभ्रंश-साहित्य . __ कवि ने कार्तिक शुक्ला अष्टमी बुधवार वि. सं. १४९७ को यह कृति समाप्त की थी।
कृति में ३४ सन्धियों द्वारा कवि ने पांडवों की कथा का वर्णन किया है। ग्रन्थ का आरम्भ निम्नलिखित अलंकृत पद्य से होता हैॐनमो वीतरागाय।
वोह सुसर धयरट्ठहो गय धयरट्ठहो, सिरि ललामु सो रहो।
पणवेवि कहमि जिणिठ्ठहो णुय वल विठ्ठहो, कह पंडव षयरट्ठहो । जिन स्तवन के अनन्तर कवि सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि को नमस्कार करता है । पुनः सरस्वती वन्दन के पश्चात् इन्द्रभूति रमुख गुरुजनों को नमस्कार करता है। तदनन्तर सज्जनदुर्जन स्मरण और आत्म विनय प्रदर्शित किया गया है।
वर्णन प्रायः सामान्य कोटि के दृष्टिगत होते हैं। युद्ध वर्णन में छन्द की एकरूपता दिखाई देती है।
नारी वर्णन परम्परागत उपमानों से युक्त है। कवि ने शरीरगत सौंदर्य का ही अधिकतर वर्णन किया है। “जाहे णियंतिहे रइ वि उक्खिज्जइ" (अर्थात् जिसको देख कर रति भी खीज उठती थी) और "लायण्णों वासव पिय जूरइ" (अर्थात् उसके सौंदर्य से वासव प्रिया-इन्द्राणी भी खिन्न होती थी), आदि विशेषणों से कवि ने शारीरिक सौंदर्य की अपेक्षा उसके प्रभाव की ही सूचना दी है। सौंदर्य के हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव की अधिकता भल्लि व मारइं' विशेषण से परिलक्षित होती है। देखिये पांचाली का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैआरणालं। ..? मणिमय कणि कुंडल रयणमेहला । सीस मउलि सारा।
करे ज्मण शणिय कंकणा । तोसिया जणा, कंठ मुत्तहारा॥ चल णिहिं मंजीरय मणि कंठिय, उरि कंचुलिय रयणमय दिठ्ठिय । सिरि खंडहिं कपूरहिं लेविय, कुसुम गंध भमरावलि सेविय । मुहं तंबोलु णयण किय कज्जलु, मुह सासें मंडउ किउ परिमलु । रंभ तिलोत्ति मणं सुरअच्छर, णव जोवण मिइ खोडस वछर ।
१. विक्कम रायहो व व गय कालए, महि सायर गह रिसि अंकालए।
कत्तिय सिय अठ्ठमि वह वासरे, हुउ परिपुण्णु पढम नंदीसरे ॥
इति पंडु पुराण समाप्त।
ग्रंथ संख्या ९६०० २. वोह"रटुहो-ज्ञान सरोवरे हंसस्य ।
गय' रट्ठहो-गतजध्वजराष्ट्रस्य । सिरिललामु"हो-तिलको भूतस्य सौराष्ट्र देशस्य णुय वलविट्ठहो-नूत बल गोविन्दस्य। .