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अपभ्रंश-साहित्य हा हा परभवि को वि छाइउ, तं भव अजिजउ अम्हहं प्रावउ । किं गउ गम्भि मुइय किं जाइय, हा विहि किं जोवनि संभाविय।
२८.१३ हरिवंश पुराण यशः कीति-रचित यह ग्रंथ भी अप्रकाशित है। इसकी वि० सं० १६४४ की एक हस्तलिखित प्रति देहली के पंचायती मन्दिर में विद्यमान है।
इस ग्रंथ की रचना कवि ने जोगिनीपुर में अयरवाल (अग्रवाल) वंश में प्रमुख गग्ग (गर्ग) गोत्रोत्पन्न दिउढा साहु की प्रेरणा से की थी। सन्धियों की पुष्पिकाओं में भी दिउढा का नाम मिलता है। प्रत्येक सन्धि के आरम्भ में कवि ने दिउढा के लिये संस्कृत भाषा में आशीर्वाद परक छन्द भी लिखे हैं। दिउढा के लिये कहीं कहीं एकाध (ड्यौड़ा) शब्द का प्रयोग किया गया है । ग्रन्थ की समाप्ति पर भी कवि ने दिउढा साहु के वंश का परिचय देते हुए उसकी चिर मंगल कामना की है। संधि के लिये अधिकतर सग्ग (सर्ग) शब्द का प्रयोग किया गया है। एक दो सन्धियों में 'संधो परिछेऊ' या 'सग्गो परिछेऊ' का भी प्रयोग मिलता है।
कवि ने कृति की रचना भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी गुरुवार वि० सं० १५०० में की थी। कृति इंद्रपुर में जलाल खान के राज्य में समाप्त हुई । ग्रंथ में तेरह सन्धियों
१. हरिवंश पुराणु १. २ २. इय हरि वंस पुराणे, कुरुवंसा हिढिय सुपहाणे विवुह चित्ताणुरंजणे, श्री गुण कित्ति सीस मुणि
जस कित्ति विरईए, साधु दिउढा साहुअणुमण्णिए, ... इत्यादि । ३. दान शृंखलया बद्धा, चला ज्ञात्वा हरि प्रिया। दिवढाख्येन तत्कीत्तिः, दूरे दूरे पलायिता ॥ ४. १ वदान्यो बहुमानश्च, सदा प्रीतो जिनार्चने ।
परस्त्री विमुखो नित्यं, दिउढाल्यो त्र नन्दतात् ॥ - शीलं च भूषणं अस्य, सत्यं हि मुखमण्डणं । कार्य परोपकारेण, स दिउढा नन्दताचिरं॥ ५.१ यस्य द्रव्यं सुपात्रेषु, यौवनं स्वस्त्रियां भवेत् । भूति यस्य (य) स्य परार्थेषु, स एकार्यो त्र नंदतात् ॥
४. विक्कम रायहो ववगय कालई, महि इंदिय दुसुण्णअंकालई ।
भादव एयारसि सिय गुरुदिणे, हुउ परिपुण्णउ उग्गंतहि इणे ॥१३-१९ ५. णउ कवित्त कित्तिहें धणलोहें, गउ कासु वरि पवठ्ठिय मोहें।।
इंव उरिहि एउ हुउ संपुण्णउ, रज्जि जलालखान कउउण्णउ ॥ १३. १९