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अपभ्रंश महाकाव्य
इसी प्रकार रावण की मृत्यु पर विभीषण विलाप करता हैतुहु पडिऊसि ण पडिउ पुरंदर। मउडुण भग्गुभग्गु गिरि कदर । हारु णं तुटु नुट्ट तारायणु। हिययण भिण्णु भिण्णु गयणंगणु । जीउण गउ गउ आसा पोट्टल। तुहुण सुत्तु सुत्तउ महि मंडल ॥
प० च० ७६.३ इनके अतिरिक्त उपमा, श्लेष आदि अलंकारों का भी कवि ने प्रयोग किया है जिनकी ओर पहले ही निर्देश किया जा चुका है।
अलंकारों में कहीं कहीं हलकी सी उपदेश भावना भी दृष्टिगत हो जाती है । जैसेलकवण कहिं वि गवेसहि तं जलु, सज्जण हियउ जेम जं निम्मलु । दूरागमणे सीय तिसाइय, हिम हय नव नलिणिव विच्छाइय ।
अर्थात् लक्ष्मण कहीं जल खोजते हैं जो सज्जन के हृदय के समान निर्मल हो । दूरगमन से सीता तृषार्त हो हिमहत नलिनी के समान हतप्रभ हो गई।
छन्द-कवि ने ग्रंथ में गन्धोदकधारा, द्विपदी, हेला द्विपदी, मंजरी, शालभांजिका, आरणाल, जंभेटिया, पद्धड़िका, वदनक पाराणक, मदनावतार, विलासिनी, प्रमाणिका, समानिका, भुजंग-प्रयात इत्यादि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है ।।
रिट्ठणेमि चरिउ (रिष्टनेमिचरित) या हरिवंश पुराण
यह ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। इसकी एक हस्तलिखित प्रति बंबई के ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन में, एक भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना में और एक प्रति प्रो० हीरालाल जैन के पास है। एक खंडित प्रति शास्त्र भंडार श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, छोटा दीवाण जी, में भी वर्तमान है । यह महाकाव्य पउम चरिउ से भी बड़ा है। इसमें ११२ संधियाँ हैं और १९३७ कडवक हैं। इनमें से ९२ संधियाँ निस्संदेह स्वयंभू रचित हैं और ९३ से ९९ तक की संधियाँ भी संभवतः स्वयंभू ने ही लिखीं। अवशिष्ट अधिकांश संधियाँ त्रिभुवन स्वयंभू ने रची और अन्त की कुछ सन्धियों में मुनि जसकिति का भी हाथ है । - इसमें चार कांड हैं—यादव, कुरु, युद्ध और उत्तर कांड। यादव कांड में १३, कुरु कांड में १९, युद्ध कांड में ६० और उत्तर कांड में २० संधियाँ हैं। इनमें से पहली ९२ संधियों को रचने में कवि को छः वर्ष तीन मास और ग्यारह दिन लगे।'
१. पउम चरिउ-डा. हरिवल्लभ भायाणी द्वारा संपादित, भारतीय विद्या
भवन, बम्बई, १० ७८॥ २. तेरह जाइव कंडे कुर कंडे कूणवीस संधीओ,
तह सठि जुज्मय कंडे एवं वाणउदि संधीओ ॥ छन्वरिसाइं तिमासा एयारस वासरा सयंभस्म । वाणवइ-संधि करणे बोलीणो इत्तिओ कालो।
९२वीं संधि की समाप्ति