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अपभ्रंश महाकाव्य
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जिस यौवन के पीछे जरावस्था लगी रहती है उससे कौन सा सन्तोष हो सकता है। ग्रन्थ में सामान्य छन्दों के अतिरिक्त नागिनी (८९.१२), सोमराजी (९०.४), जाति (९०.५), विलासिनी ( ९०.८) इत्यादि अनेक छंदों का प्रयोग मिलता है । कुछ कड़वकों में चौथाई का प्रयोग भी मिलता है । इन कड़वकों के अन्त में प्रयुक्त घत्ता दोहा छन्द में नहीं । उदाहरण के लिये
rusहं घरिणि णाउं गंधारी, छट्ठि णाम महवि वियसिय कमल वर्याणि सुमनोहर, पीणुण्णयर घण घढिण पणविवि पभणडं णेमि जिणेंदहु, भवियण तारायण जिम सामिय क्खहि मज्झभु भवंतर, फेडहि संसउ मज्भु
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इस कड़वक के अन्त में घत्ता का प्रयोग नहीं है ।
जिण पभणडं थिरु कण्णधरिज्जह, कहमि भवंतर तुहुं णिसुणिज्जर्ताह । भरह खित्ति कोसल वर देसें, आउज्झाहिं सुणिउ तह आसें । विणय सीय णामें तहुपत्ती, कंचण रयर्णाहं सा दिप्पंती ।
धत्ता - सील
धरहं मुणिबलण णवेध्पिण, भावबिसुद्ध दाणु तह सुरभोय धरत्तिजाएप्पिण, भोयवि तिष्णि पल्ल
पियारी |
पहर ।
चंदहु ।
निरंतर |
११०. १
तहु देविणु । भुजेविणु ॥
११०. २
विज्जवेय णामें तहु पत्ती, वहु लक्खण धरणिरु विजय सोय णामें तहु धीय, उप्पणिय तहु उवरिविणीया ।
गुणवंती ।
११०.४
कहीं-कहीं पर कड़वक में यद्यपि चौपाई छन्द का प्रयोग नहीं मिलता तथापि अन्तिम घत्ता का रूप कहीं दोहा के समान और कहीं साक्षात् दोहा है । उदाहरणार्थघत्ता - जइ ण रमिय वहुतेण सह परि सेसिय गव्वु । अजगल सिहु णबि जिम विहलु जुव्वण रूउ वि सव्वु । धत्ता -- चक्खु महंता णरवरहं, ताहमि लोयहं णरवर । आयइ णीयई पुहविपहु, ते भुंजंति सयलधर ॥ धत्ता -- घाइ कम्मु खउ णेविणु, केवल णाणु लहेबि । वंति झाणि णिय पच्छिम, तिज्ज चउत्थ इवेवि ॥ ९९.१३
८४. १
पृथ्वीराज रासो
इस ग्रन्थ का रचयिता कवि चन्द वरदायी है जो पृथ्वीराज का कविराज, सामन्त और उसी का समकालीन एक चारण माना जाता । इसी ने इस महाकाव्य में चौहान वंश के पृथ्वीराज तृतीय का चरित्र वर्णित किया है । इस काव्य का आरम्भिक रूप संक्षिप्त था और राजा के यश-गान के लिए रचा गया था । धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन
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