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अपभ्रंश-साहित्य
अर्थात् परसुता के साथ आहूत ने पांचों पांडव भी प्रविष्ट हुए। जैसे जीव दया के साथ पंच परमेष्ठी - अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- प्रविष्ट हुए हों । काव्य में सूक्तियों का भी प्रयोग मिलता है
"सीहहो हरिणि जिहं शिय पुष्णेहिं केस बि चुक्की"
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२८. ७ अर्थात् जैसे सिंह ( के मुख) से हरिणी किसी प्रकार निज पुण्यों से छूटी हो । "जह पहु दुच्चरिउ समायरइ सहि जणु सामण्णु काई करह" अर्थात् जहाँ प्रभु दुश्चरित करेगा तो सामान्य जन क्या करेगा ?
बरि सुख समृद्दु वरि मंदरो णमेहः । पण बि सव्वष्ठ भालियं प्रणहा हवेइ ॥
१०. १५ अर्थात् चाहे समुद्र सूख जाय, चाहे मंदर झुक जाय किन्तु सर्वज्ञ का कथन अन्या नहीं हो सकता ।
कवि ने यद्यपि स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि बाण से उसने बड़े-बड़े समासों और शब्दाडंबर बाली भाषा ली। किन्तु उसकी भाषा इस प्रकार के समासों से रहित, सरल और सीधी है । कचि को पज्झटिका छन्द बहुत प्रिय था । उसने इसी छन्द का अपनी कृतियों में उपयोग किया हो ऐसी बात नहीं । इस छन्द के अतिरिक्त भुजंगप्रयात, मत्त मातंग, कामिनी मोहन, नाराचक, केतकीकुसुम, द्विपदी, हेला, पारणक आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है ।
महापुराण
महापुराण या विषट्ठि महापुरिस गुणालंकार पुष्पदन्त द्वारा रचा हुआ महाकाव्य है । पुष्पदन्त काश्यप गोत्रोत्पन्न ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम केशव भट्ट तथा माता का नाम मुग्धादेवी था । जीवन के पूर्वकाल में शैव थे पीछे से जाकर दिगंबर जैन हो गये । दृष्टों से सताये जाने पर यह मान्यखेट पहुँचे । वहाँ
"वावेण समप्पिउ घणघणउं तं अक्खर नंबर अप्पणउ"
"चमहेण समप्पिय पद्धडिय"
रि० च०१.२
श्री पी. एल. वैद्य द्वारा संपादित, माणिक्यचन्द्र जैन ग्रंथमाला से तीन खंडों में वि. स. १९९३, १९९६ और १९९८ में क्रमशः प्रकाशित ।
कसणसरीरें सुट्ठकुरूवें कासव गोतें केसव पुत्तं पुप्फयंत. कइणा पडिउत्तउ
रि० च० १.२
मुद्धाएवि गन्भ संभवं ।
कइ कुल तिलएं सरसइ लिएं ।
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महापुराण ३८. ४. २-४