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अपभ्रंश-साहित्य स्थान-स्थान पर प्रकृति-वर्णन भी उपलब्ध होते हैं। निम्नलिखित मधुमास का वर्णन देखिने
फराणु गउ महुमासु परायउ, मयणुछलिउ लोउ अणुरायउ। वण सय कुसुमिय चारु मनोहर, बहु मयरंद मत बहु महुयर। गुमुगुमंत खणमणई सुहावहि, अहपणट्ठ पेम्मुउक्कोवहिं । केसु व वहिंपणातण फुल्लिय, पं विरहग्गे जाल पमिल्लिया। घरि घरि णारिउ णिय तणु मंडहिं, हिंदोलहिं हिंडहि उग्गायहि ।
वणि परपुट्ठ महुरु उल्लावहि, सिहिउलु सिहि सिहरेहिं पहाबइ। १७. ३ अर्थात् फाल्गुन मास समाप्त हुआ और मधुमास (चत्र) आया मदन । उद्दीप्त होने लगा । लोक अनुरक्त हो गया । वन नाना पुष्पों से युक्त, सुन्दर और मनोहर हो गया। मकरन्द पान से मत्त मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं . . . . . • घरों में नारियां अपने शरीर को अलंकृत करती है, झूला झूल रहीं हैं, विहार करती हैं, गाती वन में कोयल मधुर आलाप करती हैं । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं।
ग्रन्थ में शृङ्गार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यंजक अनेक स्थल उपलब्ध होते हैं । ५६. १ में कंसवध पर स्त्रियों के शोक का वर्णन मिलता है । युद्ध के वर्णन सजीव हैं। ऐसे स्थलों पर छन्द परिवर्तन द्वारा कवि ने शस्त्रों और सैनिकों के गति-परिवर्तन की व्यंजना की है। स्थल-स्थल पर अनुरणनात्मक शब्दों के प्रयोग द्वारा अनेक चेष्टाओं को रूप देने का प्रयत्न किया गया है। उदाहरणार्थ
रहवउ रहहु गयहुगउ धाविड़, धाणुक्कहुधाणुक्कु परायउ। तुरउ तुरंग कुखग्ग विहत्थउ, असिवक्खरहु लग्गु भय चत्तउ। वजहिं गहिर तूर हय हिंसहि, गल गुलंत गयवर बहु दीसहि ।
हणु हणु मारु मार पभणतिहिं । बलिय परत्ति रेणु गहि धायउ, लहु पिसलुद्धउ लुद्धउ मायउ। फिक्कारउ करंति सिवदारुणु , सुम्मई सुहड भमंति कहिरावणु। भलहल सेल कुंतसर भिण्णा, गय वर हय करवालहिं छिण्णा। पर वर णाह पडिय दो खंडिय, घर तक्खणि णकरं कहि मंडिय॥
बिहिं तडातडा, मुछिहिं भडा भडा। कुंत घाय दारिया, खग्गाह वियारिया । जीव आस मेल्लिया, कायरा विचल्लिया।
खग्ग हत्य ढुक्कही, सोहणाई बुक्कहिं ।
८९.१०