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अपभ्रंश महाकाव्य
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भाषा-भाषा की दृष्टि से कवि ने साहित्यिक अपभ्रंश का प्रयोग किया है। अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग अपभ्रंश कवियों की विशेषता रही है। स्वयंभू ने भी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अनेक स्थलों पर किया है । उदाहरणार्थ
तड़ि तड़-तड़ पड़इ घणु गज्जइ । जाणइ रामहो सरणु पवज्जइ । अर्थात् तड़ित् तड़-तड़ शब्द करती है, घन गर्जन करता है। जानकी राम की शरण में आती है ।
पावस में बिजली की चमक और मेघों के गर्जन की ध्वनि कानों में गूंजने लगती है। इसी प्रकार गोदावरी नदी के उत्ताल तरंगमय प्रवाह का निर्देश ऊपर किया जा चुका है। युद्ध में धनुष टंकार और खड्गों की खनखनाहट निम्नलिखित शब्दों में सुनी जा सकती है-
हण-ह-हकार महारउद्दु । छण-छण-छणंतु
गुणपि-पछि-सद्द । कर-कर-करंतु कोयंड पवरु । थर थर परंतु णाराय- नियत । क्षण-खणखणंतु तिक्वग्ग खग्गु । हिल-हिलि-हिलंतु हम चंचलग्गु । गुलु-गुल-गुलंत गयवर विसालु । "हणु हण" भणत गर
वर विसालु ।
प० च० ६३. ३ वर्णन में यदि कठोर
भावानुकूल शब्द योजना का कवि ने ध्यान रखा है। युद्ध वर्णों का प्रयोग किया है तो सीता के वर्णन में सुकुमार वर्णों का । राम - विऊएं दुम्मणिया । अंसु - जलोल्लिय-लीयणिया । मोक्कल केस कवोल भुआ । विड विठल जणय- सुया ॥
लक्लिय सीया एवि किह । वियसिय सरिया होई जिह | णं मय-लंछण ससि जोन्हा इव । तित्तिविरहिय गिम्ह- तरहा इव । '
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स पउहर पाउस - सोहा इव । अविचल सव्वंसह वसुहा इव । कंति- समुज्जल-तडिमाला इव । सुठु सलोण उयसहि-वेला इव । निम्मल-कित्तिव रामहो केरी । तिहुयण मिथि परिट्ठिय सेरी ।
प० च० ४९.१२
शब्दों में समाहार शक्ति के दर्शन होते हैं । मेघवाहन और हनूमान् के युद्ध का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
वेणवि राहव-रावण पक्खिय । वेण्णिवि सुर-बहु-णयण कडक्विय ।
अर्थात् हनूमान् और मेघवाहन दोनों क्रमशः राघव और रावण के पक्ष में थे । दोनों पर सुरांगनाओं के नयन कटाक्ष गिर रहे थे । 'कंडक्खिय' शब्द कई शब्दों के
स्थान पर प्रयुक्त हुआ है ।
९. तृप्ति विरहित ग्रीष्म तृष्णा के समान ।