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अपभ्रंश - साहित्य
कवि की भाषा अलंकारमयी है । उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, अनन्वय, तद्गुण आदि अनेक अलंकारों का भाषा में स्वाभाविकता से प्रयोग किया गया है । उदाहरणार्थंणव-फल- परिपक्काणणे काणणे कुमुमिय साहारए साहारए ।
यमक-
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उत्प्रेक्षा
धत्ता
अनन्वय
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मधुकर महुमतएं जंतएं, कोइल वासंतए वासंतए ।
तुंगभद्रा नदी के विषय में कवि कहता है
असते वण- दव-पवण झउ, दुसह-किरण-दिवायरहो । णं स सुट्ठ तिसाएण, जीहे पसारिय सायरहो ॥
मंदोदरी की प्रशंसा करता हुआ कवि कहता हैघत्ता- किं बहु जंपिएण उवमिज्जइ काहे किसोयरि । णिय-पडिछंद णा थिय, सई जेणाई मंदोयरि ॥
तद्गुण
किष्किन्धा पर्वत का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैजहि इंदणील-कर- भिज्जमाणु, जहि पउम राय-कर-तेय - पिंडु, जहि मरगय खाजिवि विष्णु रंति,
इत्यादि ।
ससि थाइ जुण्ण- दप्पणु-समाणु । रतुप्पल-सण्णिहु होइ चंदु । ससि बिंबु भिसिणि पत्तुव करंति ।
प० च० ६९.५ अर्थात् जिस faoकन्धा पर्वत पर इंद्रनील मणियों की किरणों से भिद्यमान चन्द्रमा जीर्ण दर्पण के समान बना रहता है, पद्मराग मणियों की किरणों के तेज पुंज से चन्द्रमा रक्त कमल के समान हो जाता है और मरकतमणि की चमकती खानें चन्द्रबिंब को कमल के समान बना देती हैं ।
अपन्हुति
अयोध्या के अन्तःपुर का वर्णन करता हुआ कवि अन्तःपुर की स्त्रियों के अंगों का — प्रकृत उपमेय का — प्रतिषेध करता हुआ - अप्रकृत उपमान की स्थापना करता
है
यथा
कि चलण तलग्गइ कोमलाइ । णं णं श्रहिणव- रतुप्पलाइ ।
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कि तिवलिउ जठर पद धाविआउ । णं णं काम उरिहि खांइग्राउ | कि रोमावलि घण-कसग एहु । णं णं मयणाणल- धूम -लेह |
किं आणमु णं णं चंद बिंब । कि अहरउ णं णं पक्क-बिंबु ।
प० च० ६९.२१