________________
अपभ्रंश महाकाव्य
५९
__रस की दृष्टि से पउम चरिउ में हमें वीर, शृंगार, करण और शान्त रस ही मुख्य रूप से दिखाई देते हैं । वीर रस के साथ साथ श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति वीर रसात्मक काव्यों में दृष्टिगत हो ही जाती है । अपभ्रंश के काव्यों में तो यह प्रवृत्ति प्रचुरता से परिलक्षित होती है । किसी सुन्दरी को देखकर, उस पर रीझ कर उसके लिए प्राणों की बाजी लगा देना या इस कल्पना से ही कि हमारी वीरता को देखकर अमुक सुन्दरी मुग्ध हो जायगी, युद्ध क्षेत्र में अपने प्राणों की परवाह न करना-स्वाभाविक ही है । जैन अपभ्रंश परंपरा में धार्मिक भावना विरहित काव्य की कल्पना नहीं की जा सकती। अतएव संसार की अनित्यता, जीवन की क्षणभंगुरता और दुःख बहुलता दिखाकर विराग उत्पन्न कराना-शान्त रस में काव्य एवं जीवन का पर्यवसान ही कवि को अभीष्ट था । वीरता के साथ युद्ध क्षेत्र में प्रणयीजन के विनाश से करुण रस की उत्पत्ति स्वाभाविक सी हो जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य रस भी स्थल-स्थल पर परिलक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए वीर रस देखिएयुद्ध के लिए प्रस्तुत सैनिकों के उत्साह का वर्णन करता हुआ कवि कहता है-- केषि जस लुट । सण्णा कोह । केवि सुमित्त-पुस ।
सुकलत्त-चत्त-मोह। के विणीसरंति वीर । भूधरव्व तुंग धीर । सायरव अप्पमाग । कुंजरव दिण्णदाण । केसरि'व उखकेस। चत्त सव्य-जीवियास । के वि सामि-भत्ति-घत । मकिकरगि-मज्जलंत । के वि आहवे अभंग । कुंकुम पसाहि-अंग।
१० च० ५९, २. छंद का प्रयोग भी कवि ने इस कुशलता से किया है कि पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की पग-ध्वनि कानों में गूंजने लगती है। शब्द योजना से ही सैनिकों का उत्साह अभिव्यक्त होता है।
करण रस की अभिव्यक्ति युद्ध स्थल में अनेक उद्धरणों द्वारा कवि ने की है। लक्ष्मण के लिए अयोध्या में अन्तःपुर की स्त्रियाँ विलाप करती हैं
हुक्लाउरु रोवइ सयल लोउ । णं चप्पिवि थप्पिवि भरिउ सोउ । रोवइ भिच्च-यण समुद्द-हत्थु । णं कमल-संडु हिम-पवण-घत्यु । रोवइ अवरा इव रामजणणि । केवकेक्कय दाइय तर-मूल-खणणि ।
रोषइ सुप्पह बिच्छाय जाय । रोवइ सुमित्त सोमित्ति-माय । पता- रोवंतिए लक्खण-मायरिए, सयल लोउ रोवावियउ॥ कारुण्णइ कव्व कहाए जिह, कोव ण अंसु मुआवियउ॥
प० च० ६९. १३.