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अपभ्रंश - साहित्य
उपर्युक्त वर्ण्य विषयों से भिन्न ऐहलौकिक दृश्यों और घटनाओं के वर्णन उपलब्ध होते • हैं । यह प्रवृत्ति प्राकृत के गाथा सप्तशती इत्यादि मुक्तक काव्यों में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है | अपभ्रंश के प्रबंध काव्यों में भी इस ऐहलौकिक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं ।
अपभ्रंश काव्यों में भी कवियों ने संस्कृत काव्यों की शैली, तदनुकूल काव्यरूप आदि का आश्रय लिया किन्तु यह सारा ढांचा शिथिल सा हो गया था । वर्णनीय विषयों की विविधरूपता के स्थान पर धार्मिक विचार धारा और धार्मिक पुरुषों के चरितों के वर्णन से उत्पन्न एकरूपता द्वारा कुछ नीरसता इन काव्यों में दृष्टिगत होने लग गई थी । अपभ्रंश के अनेक "चरित" इस बात के प्रमाण हैं । वर्ण्य विषय में चाहे एकरूपता बनी रही किन्तु लौकिक भावना और दृश्यों का चित्रण अपभ्रंश काव्यों में नाना रूपों में हुआ । अब्दुलरहमान का संदेश रासक इसी प्रकार का एक प्रबंधकाव्य है । संस्कृत काव्यों में भिन्न-भिन्न सर्गों में भिन्न-भिन्न छन्दों के विधान की जो प्रवृत्ति पाई जाती है वह प्राकृत काव्यों में ही बहुत कुछ दूर हो गई थी । अपभ्रंश काव्यों में भी यही प्राकृत की प्रवृत्ति दिखाई देती है ।
अपभ्रंश साहित्य में अनेक ग्रंथ इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं जिनमें घटनाओं और वर्णनों का वही रूप दृष्टिगोचर होता है जो संस्कृत और प्राकृत महाकाव्यों में था— किसी के जीवन की कथा का क्रमशः विस्तार, जीवन के अनेक पक्षों का दिग्दर्शन, प्राकृतिक दृश्यों के सरस वर्णन, प्रातःकाल, संध्या, सूर्योदय आदि प्राकृतिक घटनाओं का सजीव रूप प्रदर्शन । इनके आधार पर इन सब ग्रंथों को प्रबन्ध काव्य समझा जा सकता है । अपभ्रंश साहित्य के अनेक पुराण, चरितग्रंथ, और कथात्मक कृतियां निस्संदेह उच्चकोटि के महाकाव्य कहे जा सकते हैं । विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में स्पष्ट उल्लेख किया है कि इन अपभ्रंश महाकाव्यों में सगँ को कुडवक कहते हैं । इस उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि उस समय अपभ्रंश महाकाव्य संस्कृत महाकाव्यों के ढंग पर ही लिखे जाते थे | अपभ्रंश काव्यों के अध्ययन से सिद्ध होता है कि दोनों के आधारभूत तत्व एक ही हैं यद्यपि उन तत्वों की अत्यधिक शिथिलता अपभ्रंश महाकाव्यों में दृष्टिगोचर होती है । महाकाव्य की आत्मा में उच्छ्वास पूर्ववत् था किन्तु उसमें निर्बलता आ गई थी । महाकाव्य के शरीर का ढाँचा वैसा ही था किन्तु उसका ओज और सौन्दर्य वैसा न रह
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गया था ।
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पहिले निर्देश किया जा चुका है कि इन प्रबन्ध काव्यों में सगँ के लिए सन्धि का प्रयोग होता था जिसके लिये साहित्यदर्पणकार ने कुडवक का निर्देश किया है ।
१. साहित्य दर्पण, निर्णय सागर प्रेस, सन् १९१५,
पभ्रंश निबद्धे स्मिन्सर्गाः कुडवकाभिधाः । तथापभ्रंश योग्यानि छंदांसि विविधान्यपि ॥
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