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अपभ्रंश महाकाव्य
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स्वयंभू की कृतियों में कुछ उल्लेख ऐसे हैं जिनसे कवि के जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । स्वयंभू मारुत और पद्मिनी के पुत्र थे । स्थूलकाय, चौड़ी नाक वाले और विरल दांतों वाले थे । ' इनकी अमृताम्बा और आदित्याम्बा नामक दो पत्नियां थीं । त्रिभुवन इनके पुत्र थे और उन्होंने स्वयंभू की अधूरी कृतियों को पूरा किया और उनमें कुछ सन्धियाँ जोड़ीं । स्वयंभू ने पउम चरिउ की रचना धनंजय और हरिवंश पुराण की रचना धवल के आश्रय में की थी । त्रिभुवन ने स्वयंभू को छंदश्चूड़ामणि, कविराज चक्रवर्ती आदि कह कर संबोधित किया है किन्तु कवि अपने आपको सबसे बड़ा कुकवि मानता है । स्वयंभू के गन्थों से और इनकी प्रख्याति से सिद्ध होता है कि यह एक विद्वान् कवि थे । अपनी प्रतिभा और कवित्व शक्ति के कारण ही इन्होंने कविराज चक्रवर्त्ती, छन्दश् चूड़ामणि आदि उपाधियां प्राप्त कीं। अपने दूसरे ग्रन्थ 'रिवृणेमि चरिउ (१.२) में निर्दिष्ट कवियों और आलंकारिकों के प्रसंग से ज्ञात होता है कि यह छंदः शास्त्र, अलंकार शास्त्र, नाट्यशास्त्र संगीत, व्याकरण, काव्य, नाटकादि पूर्ण अभिज्ञ थे । अपने 'स्वयंभू छन्दस्' में दिये प्राकृत और अपभ्रंश के लगभग ६० कवियों के उद्धरणों से सिद्ध होता है कि यह इन दोनों भाषाओं के पूर्णं पंडित थे । यही कारण है कि इनके परवर्ती प्रायः सभी कवियों ने इनका बड़े आदर के साथ स्मरण किया है । पुष्पदन्त ने स्वयंभू का उल्लेख किया है और स्वयंभू ने स्वयं बाण, नागानन्दकार श्रीहर्ष, भामह, दंडी, रविषेणाचार्य की रामकथा ( वि० सं० ७३४) का | अतः स्वयंभू का समय ७०० वि० सं० के पश्चात् और पुष्पदन्त से पूर्व ही कभी माना सकता है।
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पउम चरिउ
संपूर्णग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका । इसके प्रथम तीन कांडों का डा० हरिबल्लभ चूनीलाल भायाणी ने संपादन किया है और यह दो भागों में प्रकाशित भी हो गया है । इस की एक हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भंडार जयपुर में वर्तमान है । जैनाचार्यो द्वारा संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में पद्मचरित या राम चरित लिखा गया । संस्कृत में रविषेणाचार्य लिखित पद्मपुराण और प्राकृत में विमलसूरि कृत पउम चरिय । इनमें रामायण कथा का रूप जैनधर्म के अनुसार है । कथा पूर्णरूप से ब्राह्मणों की कथा से मेल नहीं खाती। राम कथा का जैन रूप पउम
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पउम. १. ३. अइतणुएण पईहरगतें, छिव्वरणास पविरल दंतें । २. पउम. ४२ अन्त
३. बुह यण सयंभु पर विन्नवइ । मह सरिसउ अण्णु णत्थि कुकइ । पउम. १. ३
४. सिंधी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ, भारतीय विद्याभवन, बॅबई, वि. सं. २००९.
५. प्रशस्ति संग्रह, वि. सं. २००६, १०२८२
६. डा० याकोवी द्वारा संपादित, जैन धर्म प्रजारक सभा भाव नगर से १९१४ ई० में प्रकाशित ।