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अपभ्रंश साहित्य की पृष्ठभूमि
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प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलगु, तामिल और विशेष रूप से कन्नड़ी साहित्य में भी उनका योग अत्यधिक है ।
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साहित्य की दृष्टि से जैनों ने साहित्य के सभी अंगों पर लेखनी उठाई । महाकाव्य, · खण्डकाव्य, मुक्तक, नाटक, चम्पू, गद्यकाव्य, कथाकोश आदि सभी अंगों पर जैनाचार्यों ने रचनायें कीं । काव्य - नाटकों के अतिरिक्त उन्होंने हिन्दू और बौद्ध आचार्यों की भाँति विशाल स्तोत्र - साहित्य की भी रचना की । नीति-ग्रंथों की भी जैन साहित्य में कमी नहीं । जैनाचार्यों ने अपनी भिन्न-भिन्न रचनाओं के लिए हिन्दुओं की रामायण, महाभारत और पुराणों की कथाओं को भी लिया, किन्तु जैन साहित्य में इनका रूप परिवर्तित हो गया है ।
जैन-धर्म भी धीरे-धीरे दो शाखाओं में विभक्त हो गया था । दक्षिण में दिगम्बर और गुजरात-राजपूताना में श्वेताम्बर सम्प्रदाय वालों का प्राधान्य था । इस काल से पूर्वं दक्षिण में जैनियों ने अनेक हिन्दू राजाओं को प्रभावित कर उनका आश्रय प्राप्त कर लिया था । तमिल - चेर, पांड्य और चोल राजाओं ने जैन गुरुत्रों को दान दिया, उनके लिए मंदिर और मठ बनवाये । जैनाचार्य अपने पाण्डित्य से अनेक राजाओं के कृपापात्र बने और उनसे अनेक ग्राम दान रूप में पाये । दक्षिण में शैव-धर्म के प्रबल होने से जैन-धर्म को धक्का लगा । शैव धर्म ही जैन धर्म के दक्षिण से उखाड़ने का प्रधान कारण है ।
गुजरात और राजपूताना में, जहाँ राजपूत क्षत्रिय अपनी तलवार और शस्त्रविद्या के लिए प्रसिद्ध थे, जैन-धर्म का प्रचार होना आश्चर्य ही है । हिंसा और अहिंसा की लहर भारत में क्रम-क्रम से आती-जाती रही । इस काल में फिर अहिंसा की लहर जोर से आई, जिससे सारा भारत प्रभावित हो गया। गुजरात, मालवा और राजपूताना में इसी लहर के प्रभाव से जैन धर्म फिर चमक पड़ा और इसमें जैनाचार्य हेमचन्द्र जैसे अनेक प्राचार्यों का भी बहुत कुछ हाथ रहा ।
यद्यपि जैन धर्म उत्तर भारत के अन्य देशों में और बंगाल में न फैल सका, तथापि अनेक जैन व्यापारी इन प्रदेशों में भी फैने और अहिंसा का प्रचार वैष्णव-धर्म के साथ सिन्धु नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र तक हो गया । अहिंसा के साथ पशु-हिंसा और मांस भक्षण भी रुक गये । वैष्णव-धर्म में जैनियों के समान तप और त्याग की वह कठोरता न थी, अतएव जन सामान्य ने इसे शीघ्रता और सरलता से अपना लिया ।
इस प्रकार ११ वीं - १२ वीं शताब्दी में पश्चिम भारत में जैन-धर्म, दक्षिण में शैव धर्म, पूर्व में और उत्तर में वैष्णव धर्म विशेष रूप से फैला हुआ था । वैष्णव और शैव भी अनेक मतों में बट गये थे । उन सबके अपने-अपने धार्मिक सिद्धान्त, विचार और धारणाएँ बन गई थीं । इन्हीं से उत्पन्न भिन्न-भिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में विद्वान् उलझ गये । परस्पर भेद-भावना बढ़ गई । भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की पूजा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के आगम एवं तंत्र ग्रंथों की उत्पत्ति हो गई । विचार-भेद के
१. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी - हिन्दी-साहित्य की भूमिका, पृष्ठ २२४।