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अपभ्रंश-साहित्य
सहजरूप से पूरा होने दिया जाय। मठों के अप्राकृतिक जीवन से उत्पन्न अनेक बुराइयों को दूर कर मानव को सहज-स्वाभाविक जीवन पर लाने की कामना से संभवतः सहजयान का जन्म हुआ किन्तु शीघ्र ही यह सब काम सहज-स्वाभाविक रूप में न हो कर अस्वाभाविक रूप में होने लगा। इस सहजमार्ग ने शीघ्र ही पाखंड मार्ग का आश्रय लिया। यही सहजयान तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेत, देवी-देवता, जादू-टोना, ध्यान-धारणा, सम्बन्धी हज़ारों मिथ्या विश्वासों और ढोंगों के प्राबल्य का कारण बना। अवनति की ओर बढ़ते हुए बौद्धधर्म के लिए लोगों को आकृष्ट करने के लिए इसके अतिरिक्त और साधन भी क्या था ?
___आठवीं शताब्दी में बंगाल में पाल राज्य ही बौद्धधर्म का अन्तिम शरणदाता रहा । यहाँ आकर और यहाँ से नेपाल और तिब्बत में जाकर बौद्धधर्म का सम्बन्ध तंत्रवाद से और भी अधिक बढ़ गया। चिरकाल तक बंगाल, मगध और उड़ीसा में अनेक बौद्धविहार मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदि विद्यानों से और नाना प्रकार के रहस्यपूर्ण तांत्रिक अष्ठानों से जन समुदाय पर अपना प्रभाव डालने का प्रयत्न करते रहे । किन्तु बौद्धधर्म का प्रभाव चिरकाल तक न रह सका। नालन्दा एवं विक्रमशिला के ध्वंस के साथ ही प्रायः वह भी ध्वस्त हो गया और उसके पाँच छः पीढ़ियों के बाद भारत में नाममात्र को ही शेष रह गया।
_. जैनधर्म का उदय यद्यपि उन्हीं परिस्थितियों में हुआ था जिनमें बौद्धधर्म का तथापि उसमें संयम की मात्रा अधिक थी और फलतः कभी उसका पतन भी उतना नहीं हुआ जितना बौद्धधर्म का। इस काल के राष्ट्रकूट और गुर्जर-सोलंकी राजाओं में से कुछ का जैनधर्म पर बहुत अनुराग था, किन्तु इन राजाओं पर जैनधर्म की अहिंसा का अधिक प्रभाव न पड़ा था। जैन गृहस्थी ही नहीं जैन मुनि भी तलवार की महिमा गाते हुए पाये जाते हैं । बौद्धों की तरह इनमें भी प्रारम्भ में जाति-पाँति का झगड़ा न था किन्तु पीछे से वे भी इसके शिकार हो गये। जैनधर्म में व्यापारी वर्ग भी अधिकता से मिलता है । किन्तु अनेक व्यापार करने वाली जातियों ने, जिन्होंने जैनधर्म को स्वीकार किया, इस धर्म के अहिंसा सिद्धान्त को खूब निभाया । इनमें से अनेक जातियों ने, जो पहले क्षत्रिय जातियाँ थीं, किसी समय शकों और यवनों के दाँत खट्टे किये थे। अब लक्ष्मी की शरण में जाकर उन्होंने अपने क्षत्रियोचित पराक्रम को खो दिया।
__ जैनों ने अपभ्रंश साहित्य की रचना में और उसकी सुरक्षा में सबसे अधिक सहयोग दिया। जैनों ने केवल संस्कृत में ही नहीं लिखा, प्राकृत में भी उनके अनेक ग्रंथ उपलब्ध होते हैं । जैनियों में व्यापारी-वर्ग भी था, जिनके लिए पंडितों की भाषा का ज्ञान न सरल था न संभव । उनके लिए अनेक ग्रंथ देशभाषा में-अपभ्रंश में-- लिखे गये । जैनाचार्यों ने अपने दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या के लिए अनेक ग्रंथ लिखे। किन्तु दार्शनिक ग्रंथों के अतिरिक्त जैन सम्प्रदाय के बाहर काव्य, नाटक, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोप, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयों पर भी इन आचार्यों ने लिखा। बौद्धों की अपेक्षा वे इस क्षेत्र में अधिक उदार हैं । संस्कृत,