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अपभ्रंश साहित्य का संक्षिप्त परिचय काव्य ग्रंथों में अपभ्रंश साहित्य उपलब्ध है। संस्कृत और प्राकृत में लिखे गये अनेक शिलालेख उपलब्ध होते है किन्तु अपभ्रंश में लिखा हुआ कोई शिलालेख अभी तक प्रकाश में नहीं आ सका। बम्बई के संग्रहालय (अजायबघर) में धारा से प्राप्त एक अपभ्रंश शिलालेख विद्यमान है। इसी प्रकार अपभ्रंश के एक शिलालेख की मोर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी हिन्दी साहित्य की भूमिका में निर्देश किया है। ___अपभ्रंश-साहित्य की सुरक्षा का श्रेय वस्तुतः जन भंडारों को है। इन्हीं भण्डारों में से प्राप्त अपभ्रंश-साहित्य का अधिकांश भाग प्रकाश में आ सका है और भविष्य में भी अनेक बहुमूल्य ग्रंथों के प्रकाश में आने की संभावना है । अपभ्रंशसाहित्य की पर्याप्त सामग्री इन भंडारों में छिपी पड़ी है । किसी ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति करवाकर किसी भंडार में श्रावकों के लाभ के लिए रखवा देना, जैनियों में परोपकार और धर्म का कार्य समझा जाता था। यही कारण है कि अनेक भंडारों में इस प्रकार के हस्तलिखित ग्रंथ मिलते हैं।
जिस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ्मय में अनेक काव्य लिखे-अनेक पुराण ग्रंथों का प्रणयन किया-पाश्र्वाभ्युदय, द्विसंधान काव्य, शान्ति नाथ चरित्रादि कलात्मक काव्य साहित्य का सृजन किया-चन्द्रदूत, सिद्ध दूतादि अनेक दूतकाव्य और उपमिति भव प्रपंच कथा आदि रूपक काव्यों का निर्माण किया-इसी प्रकार इन्होंने अपभ्रंश में भी इस प्रकार के ग्रंथों का प्रणयन कर अपभ्रंश-साहित्य को समृद्ध किया ।
जैनियों के अपभ्रंश को अपनाने का कारण यह था कि जैनाचार्यों ने अधिकांश ग्रंथ प्रायः श्रावकों के अनुरोध से ही लिखे । ये श्रावक तत्कालीन बोलचाल की भाषा से अधिक परिचित होते थे अतः जैनाचार्यों द्वारा और भट्टारकों द्वारा भावकगण के अनुरोध पर जो साहित्य लिखा गया वह तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश में ही लिखा गया। इन कवियों ने ग्रंथ के आरम्भ में अपने आश्रयदाता श्रावकों का भी स्पष्ट परिचय दिया है । कवि के कुल एवं जाति के परिचय के साथ साथ इन श्रावकों का भी विशद वर्णन ग्रन्यारम्भ की प्रशस्तियों में मिलता है। ___ जैन, बौद्ध और इतर हिन्दुओं के अतिरिक्त मुसलमानों ने भी अपभ्रंश में रचना की । संदेशरासक का कर्ता अब्दुर्रहमान इसका प्रमाण है । मुसलमान होते हुए भी इसके ग्रंथ में मंगलाचरण की कुछ पंक्तियों को छोड़कर अन्यत्र कहीं धर्म का कोई चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
संस्कृत में यद्यपि जैनाचार्यों ने अनेक स्तोत्र, सुभाषित, गद्यकाव्य, आख्यायिका, चम्पू, नाटकादि का भी निर्माण किया किन्तु अपभ्रंश में हमें कोई भी गद्य ग्रंथ और
१. यह शिलालेख १३वीं शताब्दी के देवनागरी अक्षरों में लिखा हुआ है। इसमें
- राधे रावल के वंशज राजकुमार के सौन्दर्य का वर्णन है। । २. हिन्दी साहित्य की भूमिका, १९४८ ई., पृ० २२ ।