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अपभ्रंश भाषा का विकास
इस प्रकार गुप्त युग की तरह इस काल में भी भारतीयों के मस्तिष्क ने काव्यप्रकाश, सिद्धान्तशिरोमणि, नैषधचरित, गीत गोविन्द, राजतरंगिणी जैसे अनेक ग्रंथ प्रदान किये । इन्हें देखकर हम सरलता से कह सकते हैं कि भारतीय प्रतिभा इस काल में भी अकुंठित रही ।
भाषा की दृष्टि से यद्यपि संस्कृत अब उतनी प्रचलित न रही किन्तु तो भी जनसाधारण में उसका गौरव और मान वैसा ही बना रहा । चिरकाल तक संस्कृत भाषा में ग्रंथों का प्रणयन इस बात का साक्षी है । ब्राह्मणों ने ही संस्कृत का आश्रय लिया हो ऐसी बात नहीं, जैनाचार्यों ने भी अपने सिद्धान्तों के प्रचार और अपने तीर्थंकरों की स्तुति के लिए संस्कृत का ही आश्रय लिया । संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृतों का व्यवहार भी इस काल में होता था और साथ ही अपभ्रंश में भी ग्रंथ रचनायें हो रहीं थीं ।
बंगाल में ८४ सिद्धों ने अपभ्रंश में रचनायें कीं । पाल वंशी बौद्ध थे, उन्होंने लोकभाषा को प्रोत्साहित किया । स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे अपभ्रंश भाषा के क्रान्तदर्शी कवियों ने भी राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय में अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया । मुंज और भोज प्राकृत के साथ-साथ अपभ्रंश के भी प्रेमी थे । अपभ्रंश के इन कवियों ने संस्कृत कवियों का अध्ययन किया था । बाण की श्लेष -शैली पुष्पदन्त में स्पष्ट दिखाई देती है | स्वयंभू ने संस्कृत के पुराने कवियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है । किन्तु इन अपभ्रंश कवियों को तत्कालीन राजवर्ग का वैसा प्रोत्साहन न मिल सका । राजा लोग अभी तक संस्कृत और प्राकृत की ओर ही अधिक आकृष्ट थे ।
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१४वीं शताब्दी में भी भानुदत्त जैसे प्रसिद्ध आलंकारिक हुए । इन्हीं का लिखा गीत गौरीपति प्रसिद्ध है । इसके बाद भी नलाभ्युदय, कार्त्तवीर्यविजय आदि संस्कृत काव्य १६ वीं - १७वीं शताब्दी तक लिखे जाते रहे । अपभ्रंश काव्यों की परम्परा भी १७वीं शताब्दी तक चलती रही। इन काव्यों में भाषा की दृष्टि से वह प्रौढ़ता नहीं । १४वीं - १५वी शताब्दी का साहित्य प्रादेशिक भाषाओं के काव्यों से प्रभावित होने लग गया था। इस समय प्रादेशिक भाषायें भी साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण कर चुकी थी ।