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चौथा अध्याय
अपभ्रंश साहित्य की पृष्ठभूमि
अपभ्रंश-साहित्य के निर्माण में जैनियों और बौद्धों का विशेष योग है अतः उस में धार्मिक साहित्य की ही प्रचुरता है । साहित्य के रचयिताओं का धार्मिक दृष्टिकोण होने के कारण इस साहित्य की पृष्ठभूमि में धार्मिक विचारधारा अधिक स्पष्ट दिखाई देती है । यद्यपि इस साहित्य में राजनीतिक चेतना का प्रभाव ही है तथापि अपभ्रंशकालीन इस परिस्थिति का विवरण अपभ्रंश- साहित्य के अध्ययन में सहायक ही होगा अत एव पहिले इसी का संक्षेप में विवेचन किया गया है ।
राजनीतिक अवस्था
गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने पर ईसा की छठी शताब्दी में मगध पर गुप्तों का ही राज्य था और मध्यदेश में मौखरियों का श्राधिपत्य स्थापित हो गया था । इसी शताब्दी में पंजाब गुजरात – काठियावाड़ - तक गुर्जर जाति का भी बोल बाला हो गया था । पंजाब में गुजरात और गुजरांवाला प्रान्त, दक्षिण मारवाड़ में भिन्नमाल और भरुच में गुर्जरत्रा (गुजरात) इन के गढ़ थे । ये ही तीन बड़ी शक्तियाँ उत्तर भारत में प्रबल थीं । मौखरियों के प्रताप से अब कन्नौज की प्रायः वही स्थिति थी जो इससे पूर्व काल में पटना की थी ।
सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में थानेसर ( कुरुक्षेत्र ) में प्रभाकर वर्धन ने उत्तरापथ की ओर अपनी शक्ति बढ़ाई । इस शताब्दी में उसका पुत्र हर्ष ही एक ऐसा बलवान् राजा था जिसने उत्तर भारत की बिखरी राजकीय सत्ता को संभाले रखा । इसने चीन में भी अपने दूत भेजे और चीन के दूत भी कन्नौज आये । हर्षवर्धन के समान पुलकेशी द्वितीय भी दक्षिण में शक्तिशाली राजा था । इस के दरबार में ईरान के राजा खुसरो ने अपने दूत भेजे ।
आठवीं शताब्दी में भारत को एक नई शक्ति का सामना करना पड़ा । बात यह है कि छठी शताब्दी में हूणों को परास्त कर भारत कुछ काल तक निश्चिंत हो गया था किन्तु ७१० ई० में अरबों की सिन्ध विजय से भारत फिर चौकन्ना हुआ। अरबों ने सिन्ध से आगे बढ़ने का भी यत्न किया किन्तु उन्हें सफलता न मिली । आठवीं शताब्दी के मध्य तक उनके भिन्नमाल राज्य और सुराष्ट्र पर हमले होते रहे ।
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