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अपभ्रंश-साहित्य
इसी का आगे चल कर सूरदास के यहाँ निम्नलिखित रूप हो गया
बांह, छुड़ाये जात हो निबल जानि के मोहि ।
हिरदै ते जब जाहुगे सबल जानुगो तोहि ॥ इस पद से प्रतीत होता है कि हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सूरदास तक अपभ्रश की चेतना बनी थी। इसी प्रकार के अन्य पद भी खोजने से हिन्दी साहित्य में उपलब्ध हो सकेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं।
पं० केशव प्रसाद मिश्र ने अपभ्रंश भाषा साथ पूर्वी हिन्दी का सम्बन्ध दिखाते हुए हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत अनेक दोहों को पूर्वी हिन्दी में परिणत करके दिखाया
सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहो बलि कीसु । तसु दइवेरणवि मुण्डिअउं जसु खल्लिहडउं सीसु ॥
हेम० ८.४.३८६ इसका हिन्दी रूप होगा
पाछत भोग जे छोड़य तेह कन्ताक बलि जावें।
तेकर देवय (से) मूंडल जेकर खल्लड़ सीस ॥ अपभ्रंश भाषा के शब्दों और हिन्दी के शब्दों में समानता की सूचना अपभ्रंश प्रथों में प्राप्त अनेक शब्दों से मिलती है। ऐसे शब्दों का निर्देश आगे अपभ्रश ग्रंथों के प्रकरण में कर दिया गया है ।
१. केशव प्रसाद मिश्र-डा० कोथ प्रॉन अपभ्रंश, इंडियन एंटिक्वेरी, भान ५६, सन् १९३० ई०, पृ० १।