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अपभ्रंश-साहित्य
'गं घरगिरि वासिणि जक्खपत्ति' म० पु० २०.६ ।
हिन्दी में प्राचीन परम्परावादी ही विशेषण और संज्ञा में लिंग साम्य का प्रयोग करने हैं (जैसे सुन्दरी बालिका ), किन्तु अन्य लोग इस प्रकार का प्रयोग नहीं करते ।
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प्राचीन भारतीय प्रार्य भाषा काल में संज्ञा की आठ विभक्तियाँ हुआ करती थीं और इस संज्ञा के २४ रूप हुआ करते थे, जिनमें से कुछ समान होते थे । मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल में विभक्तियों की संख्या घट गई और उनके रूपों में समानता और भी बढ़ गई । आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल में हिन्दी में संज्ञा के केवल तीन रूप ही रहे ( यथा घोड़ा, घोड़े, घोड़ों ) और कहीं-कहीं दो ही ( जैसे विद्वान्, विद्वानों आदि ) । शेष रूपों के अर्थ ज्ञान के लिए पर-सर्गों का प्रयोग प्रचुरता से चल पड़ा ।
क्रिया रूपों की जटिलता और लकारों की विविध रूपता अपभ्रंश में ही कम हो गई थी । हिन्दी में प्राते- प्राते मुख्यतया चार लकार रह गये – सामान्य लट् ( वर्त्तमान काल), सामान्य भूत, सामान्य लृट् ( भविष्य काल ) और लोट् । इनमें से सामान्य भूत के लिए क्त प्रत्यय - - भूतकालिक कृदंत - का प्रयोग ही अधिकता से हिन्दी में दिखाई देता है और सामान्य लट् के लिए शतृप्रत्ययरूप के साथ 'होना' क्रिया का प्रयोग होता है । क्रिया के सूक्ष्म भेदों का अर्थ बोध कराने के लिए संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग हिन्दी में पाया जाता है ।
संस्कृत में क्रियारूपों में धातु के साथ कृ, भू और अस् धातु का अनुप्रयोग, परोक्षभूत — लिट् लकार - में कुछ बड़ी-बड़ी धातुओं के साथ होता था । इनमें से अनुप्रयोग अपेक्षाकृत अधिक हुआ । छांदस भाषा में कृ धातु का अनुप्रयोग अन्य स्थलों पर भी होता था । यह अनुप्रयोग का सिद्धान्त अपभ्रंश में भी चला । जैसे-
कवलु किउ - खा लिया । जस० च० २.३७.५
हल्लोहलि हूयउ - विक्षुब्ध हुआ । कर० च० ७.१०.६
सुखु करंतु — सुख देता हुआ । कर० च० ४.७.३
इत्यादि अनेक प्रयोग अपभ्रंश में मिलते हैं । अपभ्रंश के बाद हिन्दी में भी यही परम्परा अधिकता से दिखाई देती है ( चोरी करना, स्नान करना आदि ) ।
शतृरूप - वर्तमान कालिक कृदंत - के साथ इस कृ के अनुप्रयोग के कारण हिन्दी में क्रिया रूपों में भी लिंग भेद चला । शुद्ध धातु रूपों में यह लिंग-भेद नहीं दिखाई देता । वर्तमानकालिक कृदंत रूपों में लिंग भेद संस्कृत और प्राकृत में ही वर्तमान था अतएव वह हिन्दी में भी उसी रूप में दिखाई देता है ( जैसे संस्कृत में गच्छन् - गच्छन्ती, हिन्दी में जाता है, जाती है इत्यादि ) ।
अपभ्रंश और हिन्दी की पद-योजना में मुख्य भेद यह है कि अपभ्रंश म संस्कृत और प्राकृत के तद्भव रूपों का प्रयोग प्रधानतया मिलता है । हिन्दी में प्राकृत के तद्भव शब्दों के स्थान पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का ही प्रचुरता से प्रयोग पाया जाता है । हिन्दी में यह प्रवृत्ति चाहे मुसलमानों के धार्मिक श्राक्रमरण की प्रतिक्रिया के