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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है अतः अर्थाभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले नियुक्तिकर्ता आचार्य को श्रोताओं पर अनुग्रह करने के लिए वह श्रुतपरिपाटी ही अर्थ-प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है। उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैसे मंखचित्रकार अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को समझाता है तथा शलाका अथवा अंगुलि के साधन से उसकी व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध कराने के लिए सूत्रबद्ध अर्थों को नियुक्तिकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'इच्छावेइ' शब्द का दूसरा अर्थ यह किया है कि मंदबुद्धि शिष्य ही सूत्र का सम्यक् अर्थ नहीं समझने के कारण गुरु को प्रेरित करके सूत्रव्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करवाता है। आचार्य हरिभद्र ने भी यही व्याख्या की है।
_ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि निक्षेप पद्धति के माध्यम से नियुक्तियां जैन आगमों के विशेष शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने एवं अर्थ-निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण व्याख्या-साहित्य है। नियुक्तियों की संख्या
__ नियुक्तियों की संख्या के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि नंदी सूत्र में जहां प्रत्येक आगम का परिचय प्राप्त है, वहां ग्यारह अंगों के परिचय-प्रसंग में प्रत्येक अंग पर असंख्येय नियुक्तियां होने का उल्लेख है। यहां 'असंख्येय' शब्द को दो संदर्भो में समझा जा सकता हैप्रत्येक अंग पर अनेक नियुक्तियां लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिखी गई नियुक्तियों की गाथासंख्या निश्चित नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि ये नियुक्तियां क्या थीं? इसके समाधान में एक संभावना यह की जा सकती है कि स्वयं सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियुक्तियां लिखी होंगी। इन नियुक्तियों को मात्र अर्थागम कहा जा सकता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और अर्थ के परस्पर नियोजन को नियुक्ति कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का यह अर्थ अधिक संगत लगता है कि सूत्रागम पर स्वयं सूत्रकार ने जो अर्थागम लिखा, वे ही उस समय नियुक्तियां कहलाती थीं। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांग और सूत्रकृतांग के परिचय में नंदीकार ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की एकरूपता होने से सभी अंग आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' पाठ जुड़
१. विभा १०८८ ; तो सुयपरिवाडिच्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि।
निज्जुत्ते वि तदत्थे, वोत्तुं तदणुग्गहट्ठाए । २. विभा १०८९; फलयलिहियं पि मंखो, पढइ पभासइ तहा कराईहिं।
दाएइ य पइवत्थु, सुहबोहत्थं तह इहं पि॥ ३. विभा १०९१ ; इच्छह विभासिउं मे, सुयपरिवाडिं न सुट्ठ बुज्झामि ।
नातिमई वा सीसो, गुरुमिच्छावेइ वोत्तुं जे॥ ४. आवहाटी १ पृ. ४५। ५. नंदी ८१-९१।
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