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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण जैन आगमों का प्रथम व्याख्या-साहित्य नियुक्ति-साहित्य के रूप में प्रसिद्ध है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार आगम ग्रंथों का कालान्तर में लोप हो गया अत: नियुक्ति-साहित्य केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही मान्य है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा ४५ आगमों के साथ नियुक्ति-साहित्य को भी प्रमाणभूत मानती है लेकिन स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद तथा १ आवश्यक-इन ३२ आगमों को प्रमाणभूत स्वीकार करती है। शेष नियुक्ति-साहित्य आगम-प्रामाण्य के रूप में अंगीकृत नहीं है। नियुक्ति का स्वरूप
____ आगमों पर प्रथम व्याख्या साहित्य नियुक्ति है अतः ये स्वतंत्र शास्त्र न होकर अपने-अपने सूत्र की व्याख्या के अधीन हैं। जैसे यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों को निरुक्त के माध्यम से व्याख्यायित किया, वैसे ही नियुक्तिकार ने जैन आगमों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों को निक्षेप-पद्धति से व्याख्यायित किया है। निक्षेप पद्धति में किसी एक शब्द के विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त अर्थों को प्रकट करके प्रस्तुत संदर्भ में उसका क्या अर्थ है, यह प्रकट किया जाता है। नियुक्ति-साहित्य महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध है, इसमें प्रायः आर्या छंद का उपयोग हुआ है लेकिन कहीं-कहीं दोहा और इंद्रवज्रा आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है।
__आचार्य भद्रबाहु नियुक्ति शब्द का निरुक्त करते हुए कहते हैं-'निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती२ अर्थात् जिसके द्वारा सूत्र में नियुक्त अर्थ का निर्णय होता है, वह नियुक्ति है। निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निर्णय करना तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना नियुक्ति का उद्देश्य है।' आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्द की व्याख्या करना या अर्थ प्रकट करना निरुक्ति-नियुक्ति है। जर्मन विद्वान् शान्टियर के अनुसार नियुक्तियां प्रधान रूप से १. मवृ १; निर्युक्तयो न स्वतंत्र शास्त्ररूपाः, किन्तु तत्तत्सूत्रपरतन्त्राः । २. आवनि ८२ । ३. (क) विभा १०८६ ; जं निच्छयाइजुत्ता, सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया।
तेणेयं निज्जुत्ती, निज्जत्तत्थाभिहाणाओ॥ (ख) सूटी प.१: योजनं युक्तिः अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिर्नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनम्।
निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः ॥ (ग) आवमटी प. १००; सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः। (घ) ओनिटी प. ४ ; नि:आधिक्ये योजनं युक्ति: सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः
अधिका योजना नियुक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति। (ङ) आवचू १ पृ. ९२ सुत्तनिज्जुत्तअत्थनिज्जूहणं निज्जुत्ती। ४. आवहाटी भा. १ पृ. २४२।
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