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पिंडनियुक्ति गया। अभी वर्तमान में जो नियुक्ति-साहित्य उपलब्ध है, उसके साथ नंदी सूत्र में उल्लिखित नियुक्ति का कोई संबंध प्रतीत नहीं होता।
____ आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। इन नियुक्तियों के लिखने का क्रम इस प्रकार है-१. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्रस्तव आदि की नियुक्ति का भी उल्लेख किया है। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियां ही प्राप्त हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन वे अंतिम दो नियुक्तियों की रचना नहीं कर सके। दूसरा विकल्प यह भी संभावित है कि अन्य आगम-साहित्य की भांति कुछ नियुक्तियां भी काल के अंतराल में लुप्त हो गयीं। इस संदर्भ में डॉ. सागरमलजी जैन का मंतव्य पठनीय है-'लगता है सूर्यप्रज्ञप्ति में जैन आचारमर्यादा के प्रतिकूल कुछ उल्लेख तथा ऋषिभाषित में नारद, मंखलि गौशालक आदि जैन परम्परा के लिए विवादास्पद व्यक्तियों का उल्लेख देखकर आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिज्ञा करने पर भी इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी गयीं हों पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो फलतः उपेक्षा के कारण कालक्रम से ये विलुप्त हो गयी हों।'
इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि का भी स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। डॉ. घाटगे के अनुसार ये क्रमश: दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक नियुक्तियां हैं लेकिन विचारणीय विषय यह है कि ये नियुक्ति ग्रंथ पूरक हैं अथवा स्वतंत्र कृतियां। पिण्डनियुक्ति एक स्वतंत्र रचना है, इसका विस्तृत विवेचन आगे भूमिका में किया जाएगा।
ओघनियुक्ति को आवश्यक नियुक्ति का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आवश्यकनियुक्तिगत अस्वाध्यायनियुक्ति का पूरा प्रकरण ओघनियुक्ति में है। यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती। इसके बारे में विस्तृत चिंतन नियुक्ति-साहित्य के पांचवें खण्ड में किया जाएगा।
१. आवनि ८०, ८१ ; आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। सूयगडे निज्जुत्तिं, वोच्छामि तहा दसाणं च ॥
कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरियपण्णत्तीए, वोच्छं इसिभासियाणं च ॥ २. आवहाटी १ पृ. ४१; ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्तिं.....। ३. सागर जैन विद्या भारती, भाग १ पृ. २०५।
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