Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक क्रम से जीवों की संख्या घटती जाती है। यह क्रम अपर्याप्त जीवों में तो बराबर बना रहता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में व्युत्क्रम मालूम पड़ता है। ऐसा क्यों हुआ है, यह विज्ञों के लिए विचारणीय और संशोधन का विषय है
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स्थितिचिन्तन
चौथे पद में जीवों की स्थिति अर्थात् आयु का विचार है। जीवों की नारकादि रूप में स्थिति - अवस्थिति कितने समय तक रहती है, उसकी विचारणा इसमें होने से इस का नाम 'स्थिति' पद दिया है।
जीव द्रव्य तो नित्य है परन्तु वह जो अनेक प्रकार के रूप — पर्याय—– नानाविध जन्म धारण करता है, वे अनित्य हैं। इसलिए पर्यायें कभी तो नष्ट होती ही हैं । अतएव उनकी स्थिति का विचार करना आवश्यक है। वह प्रस्तुत पद में किया गया है । जघन्य आयु कितनी और उत्कृष्ट आयु कितनी- — इस तरह दो प्रकार से उसका विचार केवल संसारी जीवों और उनके भेदों को लेकर किया है। सिद्ध तो 'सादीया अपज्जवसिता' सादि-अनन्त होने से उनकी आयु का विचार नहीं किया गया है। अजीव द्रव्य की पर्यायों की स्थिति क विचार भी इसमें नहीं है। क्योंकि उनकी पर्याय जीव की आयु की तरह मर्यादित काल में रखी नहीं जा सकती है, इसलिए उसे छोड़ देना स्वाभाविक है।
प्रस्तुत पद में प्रथम जीवों के सामान्य भेदों को लेकर उनकी आयु का निर्देश है। बाद में उनके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों का निर्देश है। उदाहरणार्थ — पहले तो सामान्य नारक की आयु और उसके पश्चात् नारक के अपर्याप्त और उसके वाद पर्याप्त की आयु का वर्णन है। इसी क्रम से प्रत्येक नारक आदि को लेकर सर्व प्रकार के आयुष्य का विचार किया गया है ।
स्थिति की सूची के अवलोकन से ज्ञात होता है कि पुरुष से स्त्री की आयु कम है । नारकों और देवों का आयुष्य मनुष्यों और तिर्यंचों से अधिक है। एकेन्द्रिय जीवों में अग्निकाय का आयुष्य सबसे न्यून है । यह प्रत्यक्ष है, क्योंकि अग्नि अन्य जीवों की अपेक्षा शीघ्र बुझ जाती है । एकेन्द्रियों पृथ्वीकाय का आयुष्य सबसे अधिक है। द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय जीवों का आयुष्य कम मानने का 'क्या कारण है, यह विचारणीय है । फिर चतुरिन्द्रिय का आयुष्य अधिक है, परन्तु द्वीन्द्रिय से कम है, यह भी एक रहस्य है और शोध का विषय है।
प्रस्तुत पद में अजीव की स्थिति का विचार नहीं है। उसका कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म, अधर्म और आकाश तो नित्य हैं और पुद्गलों की स्थिति भी एक समय से लेकर असंख्यात समय की है, जिसका वर्णन पांचवें पद में है। इसलिए अलग से इसका निर्देश आवश्यक नहीं था। फिर, प्रस्तुत पद में तो आयुकर्मकृत स्थिति का विचार है और वह अजीव में अप्रस्तुत है । १२२
पर्याय : एक चिन्तन
पांचवें पद का नाम विशेषपद है। विशेष शब्द के दो अर्थ हैं - (1) प्रकार और (२) पर्याय । प्रथम पद में जीव और अजीव इन दो द्रव्यों के प्रकार — भेद - प्रभेदों का वर्णन किया है, तो इनमें इन द्रव्यों की १२२. पन्नवणासूत्र — प्रस्तावना पुण्यविजयजी महाराज, पृ. ६०
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