Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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से ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम इन्द्रिय है। अतएव जिसकी सहायता से ज्ञान लाभ हो सके वह इन्द्रिय है। इन्द्रियाँ पांच हैं—स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। इनके विषय भी पांच हैं—स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द। इसलिए इन्द्रिय को प्रतिनियत अर्थग्राही कहा जाता है।१४४
प्रत्येक इन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप से दो-दो प्रकार की है।१४५ पुद्गल की आकृतिविशेष द्रव्येन्द्रिय है और आत्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं।१४६
इन्द्रियों की विशेष आकृति निर्वृत्ति-द्रव्येन्द्रिय है। निर्वृत्ति-द्रव्येन्द्रिय की बाह्य और आभ्यन्तरिक पौद्गलिक शक्ति है, जिसके अभाव में आकृति के होने पर भी ज्ञान होना संभव नहीं है; वह उपकरण द्रव्येन्द्रिय है। भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है।१४७ ज्ञानावरणकर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जो आत्मिक शक्तिविशेष है, वह लब्धि है। लब्धि प्राप्त होने पर आत्मा एक विशेष प्रकार का व्यापार करती है, वह व्यापार उपयोग है।
प्रथम उद्देशक में चौबीस द्वार और दूसरे में बारह द्वार हैं । इन्द्रियों की चर्चा चौबीस दण्डकों में की गई है। जीवों में इन्द्रियों के द्वारा अवग्रहण-परिच्छेद, अवाय, ईहा और अवग्रह–अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार से चौबीस दण्डकों में निरूपण किया गया है। चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह छ: प्रकार का है। वह पांच इन्द्रिय और छठे नोइन्द्रिय-मन से होता है। इस प्रकार इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दो भेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय पुद्गलजन्य होने से जड़ रूप है और भावेन्द्रिय ज्ञान रूप है। इसलिए वह चेतना शक्ति का पर्याय है। द्रव्येन्द्रिय अंगोपांग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त है। इन्द्रियों के आकार का नाम निर्वृत्ति है। वह निवृत्ति भी बाह्य रूप से दो प्रकार की है। इन्द्रिय के बाह्य आकार को बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर आकृति को आभ्यन्तरनिर्वृत्ति कहते हैं। बाह्य भाग तलवार के सदृश है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के सदृश है जो बहुत ही स्वच्छ परमाणुओं से निर्मित है। प्रज्ञापना की टीका में आभ्यन्तर निर्वृति का स्वरूप पुद्गलमय बताया है१४८ तो आचारांग-वृत्ति में उसका स्वरूप चेतनामय बताया है।१४९
यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि त्वचा की आकृति विभिन्न प्रकार की होती है किन्तु उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में पृथक्ता नहीं है। प्राणी की त्वचा का जिस प्रकार का बाह्य आकार होता है वैसा ही आभ्यन्तर आकार भी होता है, पर अन्य चार इन्द्रियों के संबंध में ऐसा नहीं है। उन इन्द्रियों का बाह्य आकार और आभ्यन्तर आकार अलग-अलग है। जैसे—कान की आम्यन्तर आकृति कदम्बपुष्प के सदृश, आंख की १४४. प्रमाणमीमांसा १।२।२१-२३ १४५. सर्वार्थसिद्धि २/१६/१७९ १४६. निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्। -तत्त्वार्थसूत्र २/१७ १४७. लब्ब्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।–तत्त्वार्थसूत्र २/१८ १४८. प्रज्ञापनासूत्र, इन्द्रियपद, टीका पृष्ठ २९४/१ १४९. आचारांगवृत्ति, पृष्ठ १०४
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