Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
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से जल अधिक है और इस कारण शंखादि भी अधिक हैं। उत्तर में मानस-सरोवर होने से जलाधिक्य है ही, इसलिए वहाँ द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं।
(७) त्रीन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व—कुंथुआ, चींटी आदि त्रीन्द्रिय शंखादि-कलेवरों के आश्रित होने से द्वीन्द्रिय जीवों की तरह जलाधिक्य पर निर्भर हैं। इसलिए इनके अल्पबहुत्व का समाधान भी द्वीन्द्रिय की तरह समझ लेना चाहिए।
(८) चतुरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीव भी प्रायः कमल आदि के आश्रित होते हैं और कमल (जलज) भी जलजन्य होने से चतुरिन्द्रिय जीवों की अल्पता-अधिकता भी जलाभाव-जलप्राचुर्य पर निर्भर है। अतः इनके अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण भी द्वीन्द्रियों की तरह समझना चाहिए।
(९) नारकों का अल्पबहुत्व—पूर्व, पश्चिम और उत्तर में सबसे कम नारक हैं, क्योंकि इन दिशाओं में पुष्पावकीर्ण नरकावास थोड़े हैं, और वे प्रायः संख्यात योजन विस्तृत हैं। इन दिशाओं की अपेक्षा दक्षिणदिशा में असंख्यात-गुणा नारक हैं, क्योंकि दक्षिण में पुष्पावकीर्णनरकावासों की बहुलता है और वे प्रायः असंख्यात योजन विस्तृत हैं। इसके अतिरिक्त कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति दक्षिणदिशा में बहुत होती है। संसार में दो प्रकार के जीव हैं-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक। जिनका संसार (भवभ्रमण) कुछ कम अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन मात्र ही शेष है, वे शुक्लपाक्षिक हैं और जिनका संसार (भवभ्रमण) इससे बहुत अधिक है, वे कृष्णपाक्षिक हैं। शुक्लपाक्षिक (परिमित-संसारी) जीव अल्प होते हैं, जबकि कृष्णपाक्षिक जीव अत्यधिक होते हैं। वे क्रूरकर्मा एवं दीर्घतर भवभ्रमणकर्ता जीव स्वभावतः दक्षिणदिशा में उत्पन्न होते हैं। प्रायः क्रूरकर्मा भवसिद्धिक जीव भी दक्षिणदिशा में स्थित नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और असुरों आदि के स्थानों में उत्पन्न होते हैं।
(१०) विशेषरूप से रत्नप्रभादि के नारकों का अल्पबहुत्व-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकभूमि से तमतमःप्रभा नामक सप्तम नरकभूमि तक के नारक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में सबसे कम हैं, किन्तु दक्षिण दिशा में उनसे असंख्यातगुणे अधिक हैं। इसका कारण पहले बतलाया जा चुका है।
(११) सातों नरकपृथ्वियों के जीवों का परस्पर अल्पबहुत्व—सप्तम नरकपृथ्वी के पूर्वपश्चिमोत्तरदिग्वर्ती नारकों की अपेक्षा इसी पृथ्वी के दक्षिणदिग्वर्ती नारक असंख्यातगुणे अधिक हैं, इसका कारण पहले बताया जा चुका है। सप्तम नरकपृथ्वी के दक्षिणदिग्वर्ती नैरयिकों की अपेक्षा छठी नरकपृथ्वी (तमःप्रभा) के पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्वर्ती नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, इसका कारण यह है कि संसार में सबसे अधिक पापकर्मकारी संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, किञ्चित् हीन, हीनतर पापकर्मकारी छठी, पांचवी आदि पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। सर्वोत्कृष्ट पापकर्मकारी सबसे थोड़े हैं; इसलिए सप्तम नरकपृथ्वी के दक्षिण में सबसे कम नारक हैं, उनसे छठी नरकपृथ्वी के पूर्व-पश्चिम-उत्तरदिग्वर्ती नारकों की अपेक्षा दक्षिणदिग्वर्ती नारक असंख्यातगुणे हैं। कारण