Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[ प्रज्ञापना सूत्र
[२५९ प्र.] भगवन्! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?
२६२]
[२५९ उ.] गौतम ! १. सबसे अल्प मनः पर्यवज्ञानी जीव हैं, २. ( उनसे ) अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, ३. आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य हैं और ( अवधिज्ञानियों से ) विशेषाधिक हैं, ४. (उनसे) विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, ५. ( उनसे) केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, ६. मति - अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी, दोनों तुल्य हैं और ( केवलज्ञानियों से ) अनन्तगुणे हैं । दशम (ज्ञान) द्वार ॥ १० ॥
विवेचन – दसवां ज्ञानद्वार: ज्ञान-अज्ञान की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व - प्रस्तुत तीन सूत्रों (२५७ से २५९ तक) में पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान की दृष्टि से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है ।
ज्ञान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े मनः पर्यायज्ञानी हैं, क्योंकि मन: पर्यायज्ञान आमर्ष-औषधि आदि ऋद्धिप्राप्त संयमी पुरुषों को ही होता है। उनकी अपेक्षा अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अवधिज्ञान, नारकों, तिर्यंञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों और देवों को भी होता है। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि जिन संज्ञी - तिर्यंञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को अवधिज्ञान नहीं होता है, उन्हें भी आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो सकते हैं। इन दोनों ज्ञानों को परस्पर तुल्य कहने का कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान परस्पर सहचर हैं। इन दोनों ज्ञानियों से केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध केवलज्ञानी होते हैं और वे अनन्त हैं।
अज्ञान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादृष्टि नैरयिकों व देवों और किन्हीं - किन्हीं तिर्यंचपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को ही होता है । विभंगज्ञान की अपेक्षा मति-अज्ञान और श्रुत- अज्ञान दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी होते हैं, और वे अनन्त होते हैं । स्वस्थान में मति अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी दोनों तुल्य हैं, क्योंकि ये दोनों अज्ञान परस्पर सहचर हैं ।
ज्ञानी और अज्ञानी दोनों का सामुदायिकरूप से अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी है, तथा उनसे आगे का अल्पबहुत्व पूर्ववत् ही पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए । मति - श्रुतिज्ञानियों से विभंगज्ञानी जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि देवगति और मनुष्यगति में सम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव असख्यातगुणे हैं। तथा देवों और नारकों में जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे अवधिज्ञानी और मिथ्यादृष्टि
१. जत्थ मइनाणं, तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं, तत्थ मइनाणं'
२. जत्थ मइ - अन्नाणं, तत्थ सुय अन्नाणं, जत्थ सुय-अन्नाणं तत्थ मइ- अन्नाणं ।'
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक १३७
३.
- प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक १३७