Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापना सूत्र हैं। (३१) उनकी अपेक्षा रत्नप्रभापृथ्वी के नारक असंख्यातगुणे हैं। वे अंगुलमात्र परिमित क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल की जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। (३२) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पुरुष असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। (३३) उनकी अपेक्षा खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियां तीन गुणी और तीन अधिक होती हैं। (३४) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की आकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं । (३५) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचस्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (३६) उनकी अपेक्षा जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यचपुरुष संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यातश्रेणियों की आकाशप्रदेशराशि के तुल्य हैं। (३७) उनकी अपेक्षा जलचर-तिर्यंच पंचेन्द्रिय स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (३८-३९) उनकी अपेक्षा वाणव्यन्तर देव एवं देवी उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यातगुण हैं। क्योंकि संख्यात योजन कोटाकोटीप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने ही सामान्य व्यन्तरदेव हैं। देवियाँ देवों से बत्तीसगुणा और बत्तीस अधिक होती हैं। (४०) उनकी अपेक्षा ज्योतिष्क देव (देवी सहित) संख्यातगुणे अधिक है, क्योंकि वे सामान्यतः २५६ अंगुल प्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (४१) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार इनसे ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं। (४२) इनकी अपेक्षा पर्याप्त चतुरिन्द्रिय संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र
सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (४३-४४-४५) उनकी अपेक्षा स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यंच नपुंसक, जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचनपुंसक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं। (४६ से ५२) उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक और द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये सब अंगल के असंख्यातवें भागमात्र सुचीरूप जितने खण्ड एक प्रत्तर में होते हैं, उतने प्रमाण में होते हैं. किन्तु अंगुल के असंख्यातभाग के असंख्यात भेद होते हैं। अतः अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय पर्यन्त उत्तरोत्तर अंगुल का असंख्यातवां भागकम अंगुल का असंख्यातवां भाग लेने पर कोई दोष नहीं। (५३ से ६८ तक) प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक, बादर निगोद- पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, बादर अप्कायिक-पर्याप्तक, बादर वायुकायिक-पर्याप्तक, बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक बादर निगोद-अपर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक बादर अप्कायिक अपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक और सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं, १. (क) 'तिगुणा तिरूवअहिआ तिरियाणं इथिओ मुणेयव्वा।' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६५ २. (क) छपन्नदोसयंगुल सूइपएसेहिं भाइयं पयरं। जोइसिएहिं हीरइ।' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १६६