Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 502
________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)] [४०१ किन्तु जो सम्मूछिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरक में उत्पन्न होता है, उसे उस समय विभंगज्ञान नहीं होता। इस कारण जघन्य अवगाहना वाले नारक को भजना से दो या तीन अज्ञान होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित - उत्कृष्ट अवगाहना वाले सभी नारकों की स्थिति समान ही हो, या असमान ही हो, ऐसा नियम नहीं है। असमान होते हुए यदि हीन हो तो वह या तो असंख्यातभागहीन होता है या संख्यातभागहीन और अगर अधिक हो तो असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक होता है। इस प्रकार स्थिति की अपेखा के द्विस्थानपतित हीनाधिकता समझनी चाहिए। यहाँ संख्यातगुण और असंख्यातगुण हीनाधिकता नहीं होती, इसलिए चतुःस्थानपतित सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक ५०० धनुष्य की ऊंचाई वाले सप्तम नरक में ही पाए जाते हैं; और वहाँ जघन्य बाईस और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की स्थिति है। अतएव इस स्थिति में संख्यात-असंख्यातभाग हानि वृद्धि हो सकती है, किन्तु संख्यात-असंख्यातगुण हानि-वृद्धि की संभावना नहीं हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियम से- उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमितः होते हैं, भजना से नहीं क्योंकि उत्कृष्टत : अवगाहना वाले नारकों में सम्मूछिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय की उत्पत्ति नहीं होती। अतः उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक यदि सम्यग्दृष्टि हो तो तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि हो तो तीन अज्ञान नियमितः होते हैं। ___ मध्यम ( अजघन्य-अनुत्कृष्ट ) अवगाहना का अर्थ - जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के बीच हना अजघन्य-अनत्कष्ट या मध्यम अवगाहना कहलाती है। इस अवगाहना का जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के समान नियत एक स्थान नहीं हैं। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की ओर उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य की होती है। इन दोनों के बीच की जितनी भी अवगाहनाएं होती हैं, वे सब मध्यम अवगाहना की कोटि में आती हैं। तात्पर्य यह है कि मध्यम अवगाहना सर्वजघन्य अंगुल के असंख्यावतें भाग अधिक से लेकर अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष की समझनी चाहिए। यह अवगाहना सामान्य नारक की अवगाहना के समान चतु:स्थानपतित हो सकती है। जघन्य स्थिति वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से तुल्य - जघन्य स्थिति वाले एक नारक से, जघन्यस्थिति वाला दूसरा नारक स्थिति की दृष्टि से समान होता है; क्योंकि जघन्य स्थिति का एक ही स्थान होता है, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता संभव नहीं है। जघन्य स्थिति वाले नारक अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित - एक जघन्य स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से अवगाहना में पूर्वोक्त व्याख्यानुसार चतु:स्थानपतित १. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १८८ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. २, पृ. ६३२ से ६३८ २. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १८८ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. ६३८ से ६३९

Loading...

Page Navigation
1 ... 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572