Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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४१४]
[प्रज्ञापना सूत्र चट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए।
[४८१-३] जिस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों का (पर्यायविषयक) कथन (किया गया) है, उसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों (से सम्बन्धित पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि ये अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित हैं, तथा स्थिति की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है।
४८२. [१] जहण्णठितीयाणं भंते! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पन्जवा पण्णत्ता। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति ?
गोयमा! जहण्णठितीए पंचेंदियतिरिक्खिजोणिए जहन्नठितीयस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंधरस-फासपज्जवेहिं दोहिं अण्णाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते।
[४८२-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४८२-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि 'जघन्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?'
[उ.] गौतम! एक जघन्यस्थिति वाला पंचेन्द्रियतिर्यंञ्च दूसरे जघन्यस्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो अज्ञान एवं दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
[२] उक्कोसठितीए वि एवं चेव। नवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा ।
[४८२-२] उत्कृष्टस्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का पर्याय-विषयक कथनी भी इसी प्रकार करना चाहिए। विशेष यह है कि इनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शनों (की प्ररूपणा करनी चाहिए।) ।
[३] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव। नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते, तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा, तिण्णि दंसणा।
[४८२-२] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का (पर्याय विषयक कथन भी) इसी प्रकार (पूर्ववत करना चाहिए।) विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से (यह) चतु:स्थानपतित हैं, तथा (इनमें) तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शनों (की प्ररूपणा करनी चाहिए)।
४८३. [१] जहण्णगुणकालगाणं भंते! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता।