Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[४१३
मध्यम आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय की पर्याय-प्ररूपणा – इसकी और सब प्ररूपणा तो जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी के समान ही है, किन्तु विशेषता इतनी ही है कि वह स्वस्थान में भी षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। जैसे उत्कृष्ट और जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का एक-एक ही पर्याय हैं, वैसे मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का नहीं, क्योंकि उसके तो अनन्त हीनाधिकरूप पर्याय होते हैं। त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा यथायोग्य द्वीन्द्रियों की तरह समझ लेना चाहिए। जघन्य अवगाहनादि वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों की विविध अपेक्षाओं से पर्याय प्ररूपणा
४८१. [१] जहण्णोगाहणगाणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता।
से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णोगाहणए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णोगाहणयस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंधरस-फासपज्जवेहिं दोहिं णाणेहिं दोहि अण्णाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते।
[४८१-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४८१-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं।
[प्र.] भगवन् ! ऐसा किस अपेक्षा से कहा जाता कि 'जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय हैं ?'
[उ.] गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तिर्यंच, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञानों, दो अज्ञानों और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। । [२] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव। णवरं तिहिं णाणेहिं तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते।
[४८१-२] उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का (पर्याय-विषयक कथन) भी इसी प्रकार कहना चाहिए, विशेषता इतनी ही है कि तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है।
[३] जहा उक्कोसोगाहणए तहा अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि। णवरं ओगाहणट्ठयाए १. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक १९३ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी भा. २, पृ. ७०१ से ७०७