Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चति ?
गोयमा! जहणाभिणिबोहियणाणी बेइंदिए जहणाभिणिबोहियणाणिस्स बेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंधरस-फासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते।
[४७७-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य-आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए है ? [४७७-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं ?
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?
[उ.] गौतम! एक जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय से द्रव्यापेक्षया तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षया तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से भी षट्स्थानपतित है।
[२] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। [४७७-२] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों के विषय में कहना
चाहिए।)
[३] अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव। णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते।
[४७७-३] मध्यम-आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का पर्यायविषयक कथन भी इस प्रकार से करना चाहिए किन्तु वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है।
४७८. एवं सुतणाणी वि, सुतअण्णाणी वि, मतिअण्णाणी वि, अचक्खुदंसणी वि। णवरं जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि। जत्थ दंसणं तत्थ णाणा वि अणाण्णा वि। ___ [४७८] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मति-अज्ञानी और अचक्षुदर्शनी द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ अज्ञान नहीं होते, जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान नहीं होते। जहाँ दर्शन होता है, वहाँ ज्ञान भी हो सकता हैं और अज्ञान भी।
४७९. एवं तेइंदियाण वि।
[४७९] द्वीन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कई अपेक्षाओं से कहा गया है, उसी प्रकार त्रीन्द्रिय के पर्याय-विषय में भी कहना चाहिए।