Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 509
________________ ४०८ ] [ प्रज्ञापना सूत्र मध्यम वर्णादि से युक्त गुण वाले पृथ्वीकायिकादि का पर्यायपरिमाण जैसे जघन्य और उत्कृष्ट कृष्ण वर्ण आदि का स्थान एक ही होता है, उनमें न्यूनाधिकता का सम्भव नहीं, उस प्रकार से मध्यम कृष्णवर्ण का स्थान एक नहीं है। एक अंश वाला कृष्णवर्ण आदि जघन्य होता है और सर्वाधिक अंशों वाला कृष्ण वर्ण आदि उत्कृष्ट कहलाता है। इन दोनों के मध्य में कृष्णवर्ण आदि के अनन्त विकल्प होते हैं । जैसे दो गुण काला, तीन गुण काला, चार गुण काला, दस गुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला, अनन्तगुण काला । इसी प्रकार अन्य वर्गों तथा गन्ध, रस और स्पर्शों के बारे में समझ लेना चाहिए। अतएव जघन्य गुण काले से ऊपर और उत्कृष्ट गुण काले से नीचे कृष्ण वर्ण के मध्यम पर्याय अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि जघन्य और उत्कृष्टगुण वाले कृष्णादि वर्ण रस इत्यादि का पर्याय एक है, किन्तु मध्यम गुण कृष्णवर्ण आदि के पर्याय अनन्त हैं । यही कारण है कि दो पृथ्वीकायिक जीव यदि मध्यमगुण कृष्णवर्ण हों, तो भी उनमें अनन्तगुणहीनता और अधिकता हो सकती हैं। इसी अभिप्राय से यहाँ स्वस्थान में भी सर्वत्र षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता बताई है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र षट्स्थानपतित समझ लेना चाहिए । पृथ्वीकायिकों की तरह अन्य एकेन्द्रियों का पर्याय-विषयक निरूपण - सूत्र ४७२ में बताये अनुसार पृथ्वीकायिक सूत्र की तरह अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों के जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम, द्रव्य, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान-अज्ञानादि की दृष्टि से पर्यायों की यथायोग्य हीनाधिकता समझ लेनी चाहिए ।" जघन्यादियुक्त अवगाहनादि विशिष्ट विकलेन्द्रियों के पर्याय ४७३. [ १ ] जहण्णोगाहणगाणं भंते! बेइंदियाणं पुच्छा । गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता । - सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं बेइंदियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णोगाहणए बेइंदिए जहण्णोगाहणस्स बेइंदियस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले, परसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस- फासपज्जवेहिं दोहिं णाणेहिं दोहिं अण्णाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्टाणवडिते । [४७३ - १ प्र.] भगवन्! जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं [ ४७२ - १ उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीव से, (क) प्रज्ञापना, म. वृत्ति, पत्रांक १९३ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा-३, पृ. ६८२ से ६८४ २. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. २, पृ. ६८८ १.

Loading...

Page Navigation
1 ... 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572