Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[४०७ अवगाहना से लेकर अचक्षुदर्शन तक से युक्त पृथ्वीकायिक आदि पांच एकेन्द्रिय जीवों का पर्यायविषयक कथन किया गया है।
जघन्यादियुक्त अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक आदि का अवगाहना की दृष्टि से पर्याय-परिमाण - जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो पृथ्वीकाायिकादि एकेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से परस्पर तुल्य होते हैं। किन्तु मध्यम अवगाहना वाले दो पृथ्वीकायिकादि अवगाहना की अपेक्षा से स्वस्थान में परस्पर चतु:स्थानपतित होते हैं। अर्थात् – एक मध्यम अवगाहना वाला पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहनावाले पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित होता है, क्योंकि सामान्यरूप से मध्यम अवगाहना होने पर भी वह विविध प्रकार की होती है। जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना की भाँति उसका एक ही स्थान नहीं होता। कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि के भव में पहले उत्पत्ति हुई हो, उसे स्वस्थान कहते हैं। इस प्रकार के स्वस्थान में असंख्यातवर्षों का आयुष्य संभव होने से असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है, अथवा असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक अथवा असंख्यातगुण अधिक होता है। इस प्रकार चतु:स्थानपतित होता है। इसी प्रकार स्थिति, वर्णादि, मति-श्रुतज्ञान एवं अचक्षुदर्शन से युक्त पृथ्वीकायिकादि की हीनाधिकता अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होती हैं। ___ जघन्य आदि स्थिति वाले पृथ्वीकायिकादि का विविध अपेक्षाओं से पर्याय-परिमाण - स्थिति की अपेक्षा से एक पृथ्वीकायिक आदि दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से तुल्य होता है, किन्तु अवगाहना, वर्णादि, तथा मति-श्रुतज्ञान के एवं अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता हैं; क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि की स्थिति संख्यातवर्ष की होती है, यह बात पहले समुच्चय पृथ्वीकायिकों की वक्तव्यता के प्रसंग में कही जा चुकी है। इसलिए जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले पृथ्वीकायिक आदि परस्पर यदि हीन हो तो असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यातभाग-अधिक, संख्यातभाग-अधिक अथवा संख्यातगुण-अधिक होता होता है। वह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार असंख्यातगुण हीन या अधिक नहीं होता। ___ पूर्वोक्त पृथ्वीकायिक आदि में दो अज्ञान और अचक्षुदर्शन की ही प्ररूपणा क्यों ? - पृथ्वीकायिक आदि में सभी मिथ्यादृष्टि होते हैं, इनमें सम्यक्त्व नहीं होता, और न सम्यग्दृष्टि जीव पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होता है। अतएव उनमें दो अज्ञान ही पाए जाते हैं। इसी कारण यहाँ दो अज्ञानों की ही प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि में चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से चक्षुदर्शन नहीं होता। इसलिए यहां केवल अचक्षुदर्शन की ही प्ररूपणा की गई है। १. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १९३ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. २, पृ. ६७५ से ६७८ २. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १९३ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. २, पृ. ६७९-६८० ३. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १९३ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा-२, पृ. ६८२