Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
तीन अज्ञान की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । चक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है ।
[२] एवं उक्कोसचक्खुदंसणी वि।
[४६२-२] इसी प्रकार उत्कृष्टचक्षुदर्शनी नैरयिकों (के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए ।) [ ३ ] अजहण्णमणुक्कोसचक्खुदंसणी वि चेव । नवरं सट्ठाणे छट्टाणवडिते । [४६२-३] अजघन्य - अनुत्कृष्ट (मध्यम) चक्षुदर्शनी नैरयिकों के ( पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए।) विशेष इतना ही है कि स्वस्थान में भी वह षट्स्थानपतित होता है । ४६३. एवं अचक्खुदंसणी वि ओहिदंसणी वि।
[४६३] चक्षुदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों की तरह ही अचक्षुदर्शनी नैरयिकों एवं अवधिदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में जानना चाहिए ।
विवेचन – जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले नारकों के विभिन्न अपेक्षाओं से पर्याय - प्रस्तुत ९ सूत्रों (सू. ४५५ से ४६३ तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना आदि से युक्त नारकों के पर्यायों का कथन किया गया है।
जघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक द्रव्य, प्रदेश और अवगाहना की दृष्टि से तुल्यजघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाला एक नारक, दूसरे नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, क्योंकि 'प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्याय वाला होता है' इस प्रकार से नारक जीवद्रव्य एक होते हुए भी अनन्त पर्याय वाला हो सकता है। अनन्त पर्याय वाला होते हुए भी वह द्रव्य से एक है, जैसे कि अन्य नारक एकएक हैं। इसी प्रकार प्रत्येक नारक जीव लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशों वाला होता है, इसलिए प्रदेशों की अपेक्षा से भी वह तुल्य है; तथा अवगाहना की दृष्टि से भी तुल्य है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का एक ही स्थान है, उसमें तरतमता - हीनाधिकता संभव नहीं है।
स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित जघन्य अवगाहना वाले नारकों की स्थिति में समानता का नियम नहीं है। क्योंकि एक जघन्य अवगाहना वाला नारक १० हजार वर्ष की स्थितिवाला रत्नप्रभापृथ्वी में होता है और एक उत्कृष्ट स्थितिवाला नारक सातवीं पृथ्वी में होता है। इसलिए जघन्य या उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक स्थिति की अपेक्षा असंख्यात भाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन भी हो सकता है। अथवा असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण अधिक भी हो सकता है। इसलिए स्थिति की अपेक्षा से नारक चतुःस्थानपतित होते हैं।
जघन्य अवगाहना वाले नारक को तीन ज्ञान या तीन अज्ञान कैसे ? - कोई गर्भज-संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नारकों में उत्पन्न होता है, तब वह नरकायु के वेदन के प्रथम समय में ही पूर्वप्राप्त औदारिकशरीर का परिशाटन करता है, उसी समय सम्यग्दृष्टि को तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को तीन अज्ञान उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात् अविग्रह से या विग्रह से गमन करके वह वैक्रियशरीर धारण करता है,