Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[३८३ काल (स्थिति) की अपेक्षा से नारकों की न्यूनाधिकता – स्थिति (आयुष्य की अनुभूति) की अपेक्षा से कोई नारक किसी दूसरे नारक से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। अवगाहना की तरह स्थिति की अपेक्षा से भी एक नारक दूसरे नारक से असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा हीन होता है, अथवा असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा अधिक स्थिति वाला चतु:स्थानपतित होता है। उदाहरणार्थ - एक नारक पूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा नारक एक-दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है। अतः एक-दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नारक, पूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक से असंख्यातभाग हीन हुआ, जबकि परिपूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नारक, एक दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक से असंख्यातभाग अधिक हुआ; क्योंकि एक-दो समय, सागरोपम के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। इसी प्रकार एक नारक तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, और दूसरा है – पल्योपम कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला। दस कोटाकोटी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। इस दृष्टि से पल्योपमों से हीन स्थिति वाला नारक. पर्ण तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नारक से संख्यातभाग हीन स्थिति वाला हआ. जबकि दूसरा, पहले से संख्यातभाग अधिक स्थिति वाला हुआ। इस प्रकार एक नारक तेतीस सोगरोपम की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा - एक सागरोपम की स्थिति वाला। इनमें एक सागरोपम-स्थिति वाला. तेतीस सागरोपम-स्थिति वाले नारक से संख्यातगण-हीन हआ. क्योंकि एक सागर को तेतीस सागर से गुणा करने पर तेतीस सागर होते हैं। इसके विपरीत तेतीस सागरोपम-स्थिति वाला नारक एक सागरोपम स्थिति वाले नारक से संख्यातगुण अधिक हुआ। इसी प्रकार एक नारक दस हजार वर्ष की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा नारक है - तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला। दस हजार को असंख्यात वार गुणित करने पर तेतीस सागरोपम होते हैं। अतएव दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नारक, तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक की अपेक्षा असंख्यातगुण हीन स्थिति वाला हुआ, जबकि उसकी अपेक्षा तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला असंख्यातगुण अधिक स्थिति वाला हुआ।
भाव की अपेक्षा से नारकों की षट्स्थानपतित हीनाधिकता—(१) कृष्णादि वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से—पुद्गल-विपाकी नामकर्म के उदय से होने वाले औदयिक भाव का आश्रय लेकर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की हीनाधिकता की प्ररूपणा की गई है। यथा—(१) कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से एक नारक दूसरे नारक से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन होता है, अथवा संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन होता है। यदि अधिक होता है तो अनन्तभाग, असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक होता है अथवा संख्यातगुण, असंख्यातगुण या अनन्तगुण अधिक होता है। यह षट्स्थानपतित हीनाधिकता है। इस षट्स्थानपतित हीनाधिकता में जो जिससे अनन्तभागहीन होता है, वह सर्वजीवानन्तक से भाग करने पर जो लब्ध हो, उसे अनन्तवें भाग से हीन समझना