Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापना सूत्र का प्रयोग अर्थ में एवं वस्तु के भेद अर्थ में भी हो सकता है, यह सूचित करने हेतु आचार्य ने इस पद
का नाम 'विशेषपद' रखा हो, यह भी संभव है। 0 शास्त्रकारों ने पर्याय शब्द का प्रयोग करके सूचित किया है कि कोई भी द्रव्य पर्यायशून्य कदापि नहीं होता। प्रत्येक द्रव्य किसी न किसी पर्यायावस्था में ही होता है। जिसे द्रव्य कहा जाता है, उस का भी प्रस्तुत पद में पर्याय के नाम से ही परिचय कराया गया है। सारांश यह है कि द्रव्य और पर्याय में अभेद है, इसे ध्वनित करने के लिए शास्त्रकार ने द्रव्य के प्रकार के लिए भी पर्याय शब्द
का प्रयोग (सू. ४३९, ५०१ में) किया है। 10 यों द्रव्य और पर्याय का कथंचित् अभेद होते हुए भी शास्त्रकार को यह स्पष्ट था कि द्रव्य और पर्याय में भेद भी है। ये सब पर्याय या परिणाम किसी एक ही द्रव्य के नहीं हैं, इसकी सूचना पृथक्-पृथक् द्रव्यों की संख्या और पर्यायों की संख्या में अन्तर बताकर की है। जैसे कि शास्त्रकार ने नारक असंख्यात (सू. ४३९) कहे, परन्तु नारक के पर्याय अनन्त कहे हैं। जीवों के जो अनेक प्रकार हैं, उनमें वनस्पति अनन्त कहा जा सकता है, परन्तु उन-उन प्रकारों में उक्त दो के सिवाय सभी द्रव्य असंख्यात हैं, अनन्त नहीं। फिर भी उन सभी प्रकारों के पर्यायों की संख्या अनन्त है, यह इस पद में स्पष्ट प्रतिपादित है। 0 वेदान्तदर्शन की तरह जैनदर्शन के अनुसार जीव द्रव्य एक नहीं, किन्तु अनन्त हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इस दृष्टि से जीवसामान्य जैसी कोई स्वतंत्र एक वस्तु (इकाई) नहीं है, परन्तु अनेक जीवों में जो चैतन्यधर्म दिखाई देते हैं, वे ही हैं, तथा वे नाना हैं और उस-उस जीव में ही व्याप्त हैं और वे धर्म अजीव से जीव को भिन्न करने वाले हैं। इसलिए अनेक होते हुए भी समानरूप से अजीव से जीव को भिन्न सिद्ध करने का कार्य करने वाले होने से सामान्य कहलाते हैं। यह सामान्य तिर्यक्सामान्य है जो एक समय में अनेक व्यक्तिनिष्ठ होता है। जैनदर्शनानुसार एक द्रव्य अनेकरूप में परिणत हो जाता है, जैसे—कोई एक जीव (द्रव्य) नारक आदि अनेक परिणामों (पर्यायों) को धारण करता है। ये परिणाम कालक्रम से बदलते रहते हैं, किन्तु जीव-द्रव्य ध्रुव है, उसका कभी नाश नहीं होता, नारकादि-पर्यायों के रूप में उसका नाश होता है। नारकादि अनेक पर्यायों को धारण करते हुए भी वह कभी अचेतन नहीं होता। इस जीवद्रव्य को सामान्य ऊर्ध्वतासामान्य कहा है, जो अनेक कालों में एक व्यक्ति में निष्ठ होता है और उस सामान्य के नाना पर्याय-परिणाम या विशेष अथवा भेद हैं। इस अपेक्षा से व्यक्तिभेदों का सामान्य तिर्यक्सामान्य है, जबकि कालिकभेदों का सामान्य ऊर्ध्वतासामान्य है; जो द्रव्य के नाम से जाना जाता है और एक है तथा अभेदज्ञान में निमित्त
बनता है, जबकि तिर्यक्सामान्य अनेक है, और समानता में निमित्त बनता है। निष्कर्म यह है कि १. (क) पण्णवणासुत्तं मूल, सू. ४३८ से ४५४, (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १७९-२०२