Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापना सूत्र विशेषाधिक हैं, क्योंकि तिर्यञ्च सामान्य में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त सभी तिर्यञ्च सम्मिलित हैं। (९२) तिर्यञ्चों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि विशेषाधिक हैं, क्योंकि थोड़े-से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि संज्ञी तिर्यञ्चों को छोड़कर शेष सभी तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि हैं, इसके अतिरिक्त अन्य गतियों के मिथ्यादृष्टि भी यहाँ सम्मिलित हैं, जिनमें असंख्यात नारक भी हैं। (९३) मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा अविरत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि भी समाविष्ट हैं। (९४) अविरत जीवों की अपेक्षा सकषाय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सकषाय जीवों में देशविरत और दशम गुणस्थान तक के सर्वविरत जीव भी सम्मिलित हैं। (९५) उनकी अपेक्षा छद्मस्थ विशेषाधिक हैं, क्योंकि उपशान्तमोह आदि भी छद्मस्थों में सम्मिलित हैं। (९६) सकषाय जीवों की अपेक्षा सयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीवों का समावेश हो जाता है। (९७) सयोगियों की अपेक्षा संसारी जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि संसारी जीवों में अयोगीकेवली भी हैं और (९८) संसारी जीवों की अपेक्षा सर्वजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सर्वजीवों में सिद्धों का भी समावेश हो जाता है।
॥ प्रज्ञापनासूत्र : तृतीय बहुवक्तव्यतापद समाप्त ॥
१. (क) 'तत्तो नपुंसग खहयरा संखेज थलयर-जलयर-नपुंसगा चउरिन्दिय तओ पणवितिपज्जत्त किंचि अहिआ।'
-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, प. १६६ में उद्धृत (ख) 'जीवाणमपज्जत्ता बहुतरगा बायराण विन्नेया। सुहमाण य पज्जत्ता ओहेण य केवली बित्ति॥'
-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, प. १६७ में उद्धृत (ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक १६६ से १६८ तक।