Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३५०]
[प्रज्ञापना सूत्र [३९७-२ प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [३९७-२ उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [३] चंदविमाणे णं पजत्तयाणं देवाणं पुच्छा।
गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तूणं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससतसहस्समब्भहिय अंतोमुर्हत्तूणं।
[३९७-३ प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति कितनी कही गई है ?
[३९७-३ उ.] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है।
३९८. [१] चंदविमाणे णं भंते! देवीणं पुच्छा।
गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिमब्भहियं ॥ __ [३९८-१ प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है?
[३९८-१ उ.] गौतम! जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग है और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है।
[२] चंदविमाणे णं भंते! अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। [३९८-२ प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है?
[३९८-२ उ.] गौतम! (उनकी) जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है।
[३] चंदविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा।
गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं अंतोमुहुत्तूणं।
[३९८-३ प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
[३९८-३ उ.] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है।
३९९. [१] सूरविमाणे णं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? १. चन्द्रविमान में चन्द्रमा उत्पन्न होता है, इसलिए वह चन्द्रविमान कहलाता है। चन्द्रविमान में चन्द्र के अतिरिक्त सभी उसके
परिवारभूत देव होते हैं। उन परिवारभूत देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट किन्हीं इन्द्र, सामानिक आदि की लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। चन्द्रदेव की उत्कृष्ट स्थिति तो मूलपाठ में उक्त है ही। इसी प्रकार सूर्यादि के विमानों के विषय में समझ लेना चाहिए।
- प्रज्ञापना, म. वृत्ति, पत्रांक १७५