Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
[२९७ को ऊर्ध्वलोक में फैलाते हैं, तब वे तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। इस कारण वे संख्यातगुणे कहे गए हैं। उनसे अधोलोक-तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं। बहुत-से व्यन्तरदेव, स्वस्थान निकटवर्ती होने से भवनपति, तिर्यग्लोक या ऊर्ध्वलोक में व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि में या, अधोलोक में क्रीड़ार्थ गमनागमन करते हैं, तथा समुद्रों में किन्हीं-किन्हीं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का स्वस्थान निकट होने से तथा कतिपय तिर्यञ्चपंचेन्द्रियजीवों के वहीं रहने के कारण उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता हैं। अतएव ये संख्यातगुणे कहे गए हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ नैरयिकों तथा भवनपतियों का अवस्थान है। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों और व्यन्तरों का निवास हैं।
पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावरों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व - पृथ्वीकायिक आदि के औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक मिल कर १५ सूत्र हैं। इन १५ ही सूत्रों में उल्लिखित अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्वोक्त एकेन्द्रिय सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।
त्रसकायिक जीवों का अल्पबहुत्व – त्रसकायिक औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पंचेन्द्रियसूत्र की तरह समझ लेना चाहिए। पच्चीसवाँ बन्धद्वार : आयुष्यकर्म के बन्धक-अबन्धक आदि जीवों का अल्पबहुत्व
३२५. एतेसि णं भंते! जीवाणं आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं पज्जत्ताणं अपज्जताणं सुत्ताणं जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सातावेदगाणं असातावेदगाणं इंदियउवउत्ताणं नोइंदियउवउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीव आउयस्स कम्मस्स बंधगा १, अपज्जत्तया संखेज्जगुणा २, सुत्ता संखेज्जगुणा ३, समोहतो संखेज्जगुणा ४, सातावेदगा संखेज्जगुणा ५, इंदिओवउत्ता संखेज्जगुणा ६, अणागारोवउत्ता संखेज्जगुणा ७, सागारोवउत्ता संखेज्जगुणा ८, नोइंदियउवउत्ता विसेसाहिया ९, असातावेदगा विसेसाहिया १०, असमोहया विसेसाहिया ११, जागरा विसेसाहिया १२, पज्जत्तया विसेसाहिया १३, आउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया १४। दारं २५॥ __ [३२५ प्र.] भगवन् ! इन आयुष्यकर्म के बन्धकों और अबन्धकों, पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों, सुप्त और जागृत जीवों, समुद्घात करने वालों और न करने वालों, सातावेदकों और असातावेदकों, इन्द्रियोपयुक्तों और नो-इन्द्रियोपयुक्तों, साकारोपयोग में उपयुक्तों और अनाकारोपयोग में उपयुक्त जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? १. प्रज्ञापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक १५१ से १५४ तक २. वही, मलय., वृत्ति, पत्रांक १५५