Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
संख्यातगुणे हैं, ४. ऊर्ध्वलोक में (उनसे ) संख्यातगुणे हैं, ५. ( उनकी अपेक्षा) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं और ६. ( उनकी अपेक्षा भी ) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं।
३२४. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तया तेलोक्के १, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा २, अधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा ३, उड्ढलोए संखेज्जगुणा ४. अधोलोए संखेज्जगुणा ५, तिरियलोए संखेज्जगुणा ६ । दारं २४ ॥
[३२४] क्षेत्र की अपेक्षा से १. सबसे अल्प त्रसकायिक-पर्याप्तक जीव त्रैलोक्य में हैं, २. ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, ३. अधोलोक तिर्यक्लोक में (उनकी अपेक्षा ) संख्यातगुणे हैं, ४. ऊर्ध्वलोक में (उनसे) संख्यातगुणे हैं, ५. अधोलोक में (उनसे ) संख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) ६. तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं। - चौवीसवाँ (क्षेत्र) द्वार ॥ २४ ॥
विवेचन – चौवीसवाँ क्षेत्रद्वार : क्षेत्र की अपेक्षा से ऊर्ध्वलोकादिगत विविध जीवों का अल्प बहुत्व — प्रस्तुत ४९ सूत्रों (सू. २७६ से ३२४ तक) में क्षेत्र के अनुसार ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक् तथा त्रैलोक्यादि विविध लोकों में चौवीसदण्डकवर्ती जीवों के अल्पबहुत्व की विस्तार से चर्चा की गई है।
'खेत्ताणुवाएणं' की व्याख्या— क्षेत्र के अनुपात अर्थात् अनुसार अथवा क्षेत्र की अपेक्षा से विचार करना क्षेत्रानुपात कहलाता है ।
ऊर्ध्वलोक – तिर्यक्लोक आदि पदो की व्याख्या - - जैनशास्त्रानुसार सम्पूर्ण लोक चतुर्दश रज्जूपरिमित है। उसके तीन विभाग किए जाते हैं— ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक ( मध्यलोक) और अधोलोक । रुचकों के अनुसार इनके विभाग (सीमा) निश्चित होते हैं। जैसे— रुचक के नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर तिर्यक्लोक है । तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक है और तिर्यक्लोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है । ऊर्ध्वलोक कुछ न्यून सात रज्जू प्रमाण है और अधोलोक कुछ अधिक सात रज्जू-प्रमाण है। इन दोनों के मध्य में १८०० योजन ऊँचा तिर्यग्लोक है। ऊर्ध्वलोक का निचला आकाश-प्रदेशप्रतर और तिर्यक्लोक का सबसे ऊपर का आकाश-प्रदेशप्रतर है, वही ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक कहलाता है; अर्थात् रुचक
समभूभाग से नौ सौ योजन जाने पर, ज्योतिश्चक्र के ऊपर तिर्यग्लोकसम्बन्धी एक-प्रदेशी आकाशप्रतर है, वह तिर्यग्लोक का प्रतर है। इसके ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर ऊर्ध्वलोक-प्रतर कहलाता है । इन दोनों प्रतरों को ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक कहते हैं । अधोलोक के ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर और तिर्यग्लोक के नीचे का एकप्रदेशी आकाशप्रतर अधोलोक - तिर्यक्लोक कहलाता है । त्रैलोक्य का अर्थ है-तीनों लोक; यानी तीनों लोकों को स्पर्श करने वाला । इस प्रकार क्षेत्र (समग्रलोक) के ६ विभाग समझने के लिए कर दिये हैं- (१) ऊर्ध्वलोक, (२) तिर्यग्लोक, (३) अधोलोक, (४) ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक, (५) अधोलोक - तिर्यक्लोक और (६) त्रैलोक्य ।'
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक १४४