Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२३६]
[प्रज्ञापना सूत्र
(सिद्ध भगवान्) अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशि-प्रमाण हैं। उनसे भी सकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पृथ्वीकायिक आदि सभी कायवान् प्राणियों का समावेश हो जाता है।
(२) सकायिक आदि अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-इनमें सबसे अल्प त्रसकायिक अपर्याप्तक से लेकर क्रमशः सकायिक अपर्याप्तक पर्यन्तविशेषाधिक हैं। यहाँ तक के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
(३) सकायिक आदि पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व—इनका अल्पबहुत्व भी पूर्ववत् युक्ति से समझ लेना चाहिए। ___ (४) सकायिकादि प्रत्येक के पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व—सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक हैं, उनसे सकायिक पर्याप्तक संख्येयगुणे हैं। इसी तरह आगे के सभी सूत्रपाठ सुगम हैं। इन सब में अपर्याप्तक सबसे थोड़े और उनकी अपेक्षा पर्याप्तक संख्यातगुणे बताए गए हैं, इसका कारण यह है कि पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तकों का उत्पाद होता है। अर्थात् पर्याप्तक अपर्याप्तकों के आधारभूत
(५) समुच्चय में सकायिक आदि समुदित पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व—इनमें सबसे कम त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि पर्याप्त द्वीन्द्रियादि से अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि असंख्यातगुणे अधिक हैं। उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वायुकायिक अपर्याप्तक क्रमशः विशेषाधिक हैं। पृथ्वीकाय के अपर्याप्तकों की आयु अधिक होने से वे तेजस्कायिक अपर्याप्त से अधिक हैं। उनसे अप्काय के अपर्याप्त बहुत अधिक होने से विशेषाधिक हैं। उनसे वायुकायिक अपर्याप्त पूर्वोक्त युक्ति से विशेषाधिक हैं। उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायुकायिक पर्याप्तक क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक विशेषाधिक होते हैं। आगे वनस्पति काय के अपर्याप्तक अनन्तगुणे पर्याप्तक संख्यातगुणे तथा सकायिक पर्याप्त उनसे संख्यातगुणे हैं। इसका कारण पहले बता चुके हैं। यद्यपि इस सूत्र (सू. २३६) के अल्पबहुत्व में १५ पद हैं, जिनका उल्लेख अन्य प्रतियों में है, किन्तु वृत्तिकार ने प्रज्ञापनावृत्ति में केवल १२ पदों का ही निर्देश किया है। अतः प्रज्ञापनासूत्र (मूलपाठ-टिप्पणसहित) में अन्य प्रतियों के अनुसार तीन पद अधिक अंकित किये गए हैं—यथा १३. सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, १४. (उनसे) सकायिक पर्याप्तक (बीच में वनस्पति कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, के पश्चात्) विशेषाधिक हैं, तथा १५. सकायिक विशेषाधिक हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १२३ २. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १२४ (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १. पृ. ८८
(ग) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग. २, पृ.७४ एवं ९२