Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ २३१
तृतीय बहुवक्तव्यतापद ]
वे एक प्रतर में जितने भी अंगुल के असंख्यात भागमात्र खण्ड होते हैं, उतने ही हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक इसलिए हैं कि वे प्रचुर अंगुल के असंख्यात भाग खण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं; क्योंकि वे प्रचुरतरप्रतरांगुल के असंख्येयभागखण्ड - प्रमाण हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्त उनसे विशेषाधिक हैं; क्योंकि वे प्रचुरतम प्रतरांगुल के असंख्यात भागखण्डप्रमाण हैं । एकेन्द्रिय अपर्याप्त उनसे अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अपर्याप्त वनस्पतिकायिक सदैव अनन्त पाए जाते हैं । इनसे विशेषाधिक सेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हैं; क्योंकि सेन्द्रिय सामान्य जीवों में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि सभी इन्द्रियवान् जीवों का समावेश हो जाता है ।
(३) पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व - चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव सबसे अल्प हैं, क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीवों की आयु बहुत अल्प होती है, इसलिए अधिक काल तक न रहने से प्रश्न के समय थोड़े ही पाये जाते हैं। उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुर प्रतरांगुल के असंख्येयभाग-खण्ड-प्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय- पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुर प्रतरांगुल के असंख्येयभाग-खण्ड-प्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतर प्रतरांगुल के असंख्यात भाग-प्रमाण खण्डों के बराबर हैं । उनकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि वे स्वभावतः प्रचुरतम प्रतरांगुल के संख्यातभागप्रमाण खण्डों के बराबर हैं। उनसे अनन्तगुणे ऐकेन्द्रिय पर्याप्तक हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होते हैं । सेन्द्रिय-पर्याप्तक उनसे भी विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें पर्याप्तक द्वीन्द्रिय आदि का भी समावेश हो जाता है ।
(४) पर्याप्तक- अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे कम सेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव हैं, क्योंकि सेन्द्रियों में सूक्ष्म - एकेन्द्रिय ही सर्वलोकव्याप्त होने के कारण बहुत हैं, किन्तु उनमें अपर्याप्त सबसे कम होते हैं । उनकी अपेक्षा सेन्द्रिय-पर्याप्त संख्यातगुणे अधिक हैं । इसी प्रकार एकेन्द्रिय अपर्याप्त सबसे कम और पर्याप्त उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं । द्वीन्द्रियों में पर्याप्तक सबसे कम हैं, क्योंकि वे प्रतरांगुल के संख्येयभागमात्रखण्ड - प्रमाण हैं, जबकि द्वीन्द्रिय- अपर्याप्तक प्रतरवर्ती अंगुल के असंख्येय भागखण्ड - प्रमाण होते हैं । इसके पश्चात् त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में प्रत्येक में पर्याप्तक सबसे कम हैं, अपर्याप्तक उनसे असंख्यातगुणे हैं, कारण वही पूर्ववत् समझना चाहिए ।
(५) समुच्चय में सेन्द्रिय आदि समुदित पर्याप्त - अपर्याप्त जीवों का अल्पबहुत्व – इनमें सबसे कम चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं, कारण पहले बताया जा चुका है। उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, ये तीनों क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त एवं द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, विशेषाधिक, विशेषाधिक एवं विशेषाधिक हैं। आगे क्रमशः एकेन्द्रिय अपर्याप्त उनसे अनन्तगुणे सेन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक, एकेन्द्रिय पर्याप्त संख्यातगुणे, सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक तथा सेन्द्रिय जीव इनसे भी विशेषाधिक होते हैं । इसके अल्पबहुत्व का कारण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।"
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १२१, १२२