Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम प्रज्ञापनापद]
[१०१
२. जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन (केवली) किसी दूसरे के द्वारा उपदिष्ट इन्हीं (जीवादि) पदार्थों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए ॥ १२२॥
३. जो (व्यक्ति किसी अर्थ में साधक) हेतु (युक्ति या तर्क) को नहीं जानता हुआ, केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि श्रद्धा रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह आज्ञारुचि नामक दर्शनार्य है॥ १२३ ॥
- ४. जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ शुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है चाहे वह शुत अंगप्रविष्ट हो या अंगबाह्य, उसे सूत्ररुचि (दर्शनार्य) जानना चाहिए ॥ १२४॥
५. जैसे जल में पड़ा हुआ तेल का बिन्दु फैल जाता है, उसी प्रकार जिसके लिए सूत्र (शास्त्र) का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल (परिणत हो) जाता है, उसे बीजरुचि (दर्शनार्य) समझना चाहिए। १२५॥
६. जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों (पइन्नों) को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध (दृष्ट एवं ज्ञात) कर लिया है, वह अभिगमरुचि होता है ॥ १२६ ॥
.७. जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों (नयविवक्षाओं) से उपलब्ध कर (जान) लिया, उसे विस्ताररुचि समझना चाहिए ॥ १२७॥
८. दर्शन, ज्ञान और चारित्र में , तप और विनय में, सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रियाभावरुचि (आचरण-निष्ठा) वाला है, वह क्रियारुचि नामक (सरागदर्शनार्य) है ॥ १२८ ॥
९. जिसने कुदर्शन (मिथ्यादर्शन) का ग्रहण नहीं किया है, तथा शेष अन्य दर्शनों का भी अभिग्रहण (परिज्ञान) नहीं किया है, और जो अर्हत्प्रणीत प्रवचन में विशारद (पटु) नहीं है, उसे संक्षेपरुचि (सराग दर्शनार्य) समझना चाहिए ॥ १२९॥
१०. जो व्यक्ति जिनोक्त अस्तिकायधर्म (धर्मास्तिकाय आदि पांचों अस्तिकायों के धर्म पर तथा श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है, उसे धर्मरुचि (सरागदर्शनार्य) समझना चाहिए ॥ १३० ॥ ___परमार्थ (जीवादि तात्त्विक पदार्थों) का संस्तव करना, (परिचय प्राप्त करना, अर्थात्- उन्हें समझने के लिये बहुमानपूर्वक प्रयत्न करना या संस्तुति—प्रशंसा, आदर करना); जिन्होंने परमार्थ (जीवादि तत्त्वार्थ) को सम्यक् प्रकार से श्रद्धापूर्वक जान लिया है, उनकी सेवा-उपासना करना या उनका सेवन-सत्संग करना); और जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है, उन (निह्नवों) से तथा कुदृष्टियों से दूर रहना, यही सम्यक्त्व-श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) है। (जो इनका पालन करता है, वही सरागदर्शनार्य होता है।) ॥ १३१ ॥ ____ (सरागदर्शन के ) ये आठ आचार हैं—(१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्विचिकित्स
और (४) अमूढ़दृष्टि, (५) उपबृहंण, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। (ये आठ दर्शनाचार जिसमें हो, वह सरागदर्शनार्य होता है।) ॥ १३२॥