Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र [१५१ प्र.] भगवन् ! बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ?
[१५१ उ.] गौतम! (१) स्वस्थान की अपेक्षा से—सात घनोदधियों में और सात घनोदधिवलयों में उनके स्थान हैं।
२- अधोलोक में—पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में हैं।
३- ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों (आवलीबद्ध विमानों) में, विमानों के प्रस्तटों (मध्यवर्ती स्थानों) में हैं।
४- तिर्यग्लोक में—अवटों (कुओं) में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (चौकोर बावड़ियों), पुष्करिणियों (गोलाकार बावड़ियों या पुष्कर-कमल वाली बावड़ियों) में, दीर्घिकाओं (लम्बी बावड़ियों, सरल-छोटी नदियों) में, गुंजालिकाओं (टेढ़ीमेढ़ी बावड़ियों) में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर: सर:पंक्तियों (नाली द्वारा जिनमें कुंए का जल बहता है, ऐसे पंक्तिबद्ध तालाबों में), बिलों में (स्वाभाविक बनी हुई छोटी कुइओं में), पंक्तिबद्ध बिलों में, उज्झरों में (पर्वतीय जलस्रोतों में), निर्झरों (झरनों) में, गड्ढों में पोखरों में, वप्रों (क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्र में तथा समस्त जलाशयों में और जलस्थानों में (इनके स्थान) हैं।
इन (पूर्वोक्त) स्थानों में बादर-अप्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से—लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से—लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते
१५२. कहि णं भंते! बादरआउक्काइयाणं अपजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! जत्थेव बादरआउक्काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरआउक्काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता।
उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। [१५२ प्र.] भगवन्! बादर-अप्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गएं हैं ?
[१५२ उ.] गौतम! जहाँ बादर-अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं, वहीं बादर-अप्कायिकअपर्याप्तको के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
१५३. कहि णं भंते! सुहुमआउक्काइयाणं पज्जत्ताऽपजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! सुहमआउक्काइया जे पजत्तगा जे य अपजतगा ते सने एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पन्नत्ता समणाउसो!
[१५३ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ-कहे हैं ?