Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
[१९२] इस प्रकार जैसे (सू. १८९ - १९० में ) ( दक्षिण और उत्तर दिशा के ) पिशाचों और उनके इन्द्रों (के स्थानों) का वर्णन किया गया, उसी तरह भूत देवों का यावत् गन्धर्वों तक का वर्णन समझना चाहिए । विशेष—इनके इन्द्रों में इस प्रकार के भेद (अन्तर) कहना चाहिए। यथा—' -भूतों के ( दो इन्द्र) - सूरूप और प्रतिरूप, यक्षों के ( दो इन्द्र) — पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के (दो इन्द्र) - भीम और महाभीम, किन्नरों के (दो इन्द्र) - किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के ( दो इन्द्र) सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के ( दो इन्द्र) — अतिकाय और महाकाय तथा गन्धर्वों के ( दो इन्द्र) — गीतरति और गीतयश; (आगे का इनका सारा वर्णन) सूत्र १८८ के अनुसार, यावत् 'विचरण करता है, (विहरति ) ' तक समझ लेना चाहिए।
१८० ]
[ संग्रहगाथाओं का अर्थ - ] ( आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो-दो इन्द्र क्रमशः इस प्रकार हैं) – १. काल और महाकाल, २. सुरूप और प्रतिरूप, ३. पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, ४. भीम और महाभीम, ५. किन्नर और किम्पुरुष, ६. सत्पुरुष और महापुरुष, ७. अतिकाय और महाकाय तथा ८. गीतरति और गीतयश ।
१९३. [ १ ] कहि णं भंते! अणवन्नियाणं देवाणं [ पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ] ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! अणवण्णिया देवा परिवसंति ?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि हेट्ठा य एगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु, एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा णगरावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खातं । ते णं जाव (सु. १८८ ) पडिरूवा । एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं ठाणा। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । तत्थ णं बहवे अणवन्निया देवा परिवसंति महड्डिया जहा पिसाया (सु. १८९ [१] ) जाव विहरंति ।
[१९३-१ प्र.] भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अणपर्णिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन्! अणपर्णिक देव कहाँ निवास करते हैं ?
[१९३ - १ उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर और नीचे एक-एक सौ योजन छोड़ कर मध्य में आठ सौ योजन (प्रदेश) में, अणपर्णिक देवों के तिरछे असंख्यात लाख नगरावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नगरावास (सू. १८८ के अनुसार) यावत् प्रतिरूप तक पूर्ववत् समझने चाहिए। इन (पूर्वोक्त स्थानों) में अणपर्णिक देवों के स्थान हैं । (वे स्थान) उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, स्वस्थान की अपेक्षा से भी लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत-से अणपर्णिक देव निवास करते हैं, वे महर्द्धिक हैं, ( इत्यादि आगे का समग्र वर्णन ) (सू. १८९ - १ में) जैसे पिशाचों का वर्णन है, तदनुसार यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति) तक (समझना चाहिए।)