Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
२०० ]
वर्णन (सू. २०७ में कथित ) अधस्तन ग्रैवेयकों के समान ( जानना चाहिए।) विशेष यह है कि (इनके ) विमानावास एक सौ होते हैं, ऐसा कहा है। शेष वर्णन (जैसा सू. २०७ में कहा गया है, ) वैसा ही यहाँ यावत् हे यायुष्मन् श्रमणो ! वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे गए हैं; तक कहना चाहिए ।
[विमानसंख्याविषयक संग्रहणी गाथार्थ – ] अधस्तन ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यम ग्रैवेयकों में एक सौ सात, उपरितन के ग्रैवेयकों में एक सौ और अनुत्तरौपपातिक देवों के पांच ही विमान हैं ॥ १५७ ॥ २१०. कहि णं भंते! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरियगह-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूइं जोयणसयाइं बहूइं जोयणसहस्साइं बहूई जोयणसतसहस्साइं बहुगीओ जोयकोडीओ बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमार- माहिंदबंभलोय-लंतग-सुक्क - सहस्सार - आणय - पाणय-आरण-अच्चुयकप्पा तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविज्ज-विमाणावाससते वीतीवतित्ता तेण परं दूरं गता णीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महतिमहालया विमाणा पण्णत्ता । तं जहा — विजये १ वेजयंते २ जयंते ३ अपराजिते ४ सव्वट्टसिद्धे ५ ।
ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, तत्थ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे । तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति सव्वे समिड्डिया सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिंदा अपेस्सा अपुरोहिता अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! |
[२१० प्र.] भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? अनुत्तरौपपातिक देव कहाँ निवास करते हैं ?
[२१० उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देवों के अनेक सौ योजन अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों तथा तीनों ग्रैवेयक प्रस्तटों के तीन सौ अठारह विमानवासों को पार (उल्लंघन ) करके उससे आगे सुदूर स्थित, पांच दिशाओं में रज से रहित, निर्मल अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पांच अनुत्तर (महा) विमान कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं - १. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध ।
वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकमय स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने किये हुए,