Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
[२०३-१ उ.] गौतम! लान्तककल्प के ऊपर समान दिशा में (सू. १९९-१ के आगे का वर्णन ) यावत् ऊपर जाने पर, महाशुक्र नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इत्यादि, जैसे (सू. २०१ - १ में) ब्रह्मलोक का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। विशेष इतना ही है कि ( इसमें ) चालीस हजार विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है । इनके अवतंसक (सू. १९७-१ में उक्त) सौधर्मावतंसक के समान समझने चाहिए । विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) महाशुक्रावतंसक है, ( इससे आगे का ) यावत् 'विचरण करते हैं', ( का वर्णन ) (सू. १९६ - १ के अनुसार ) ( कह देना चाहिए ) ।
तक
[ २ ] महासुक्के यत्थ देविंदे देवराया जहा सणंकुमारे (सु. १९९ [२]), णवरं चत्तालीसाए विमाणावाससह स्साणं चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउन्हं य चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव (सु. १९६ ) विहरति ।
[२०३-२] इस महाशुक्रावतंसक में देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है, (जिसका सर्व वर्णन सू. १९९ में उक्त) सनत्कुमारेन्द्र के समान समझना चाहिए । विशेष यह है कि ( वह महाशुक्रेन्द्र ) चालीस हजार विमानावासों का, चालीस हजार सामानिकों का, और चार चालीस हजार, अर्थात् एक लाख साठ हजार आत्मरक्षक देवों का अधिपतित्व करता हुआ - ( आगे का वर्णन सू. १९६ के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक ( समझना चाहिए ) ।
१९४]
२०४. [ १ ] कहि णं भंते! सहस्सारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते! सहस्सारदेवा परिवसंति ?
गोयमा! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं जाव (सु. १९९ [ १ ] ), उप्पइत्ता एत्थ णं सहस्सारे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण-पडीणायते जहा बंभलोए (सु. २०१ [१]), णवरं छव्विमाणावाससहस्सा भवतीति मक्खातं । देवा तहेव (सु. १९७ [७]) जाव वडेंसगा जहा ईसाणस्स वडेंसगा (सु. १९८ [१] ), णवरं मज्झे यत्थ सहस्सारवडेंसए जाव (सु. १९६ ) विहरति ।
[२०४-१ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त सहस्रार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सहस्रार देव कहाँ निवास करते हैं ?
[२०४-१ उ.] गौतम! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा से यावत् (सू. १९९-१ के अनुसार) ऊपर दूर जाने पर, वहाँ सहस्रार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा है, (इत्यादि समस्त वर्णन) जैसे (सू. २०१ - १ में) ब्रह्मलोक कल्प का है, (उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए ।) विशेष यह है कि ( इस सहस्रार कल्प में) छह हजार विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। (सहस्रार) देवों का वर्णन सू. १९७ - १ के अनुसार यावत् 'अवतंसक है' तक उसी प्रकार (पूर्ववत् ) कहना चाहिए। इनके अवतंसकों के विषय में ईशान (कल्प) के अवतंसकों की तरह (सू. १९८-१ के