Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
[१८१ [२] सन्निहिय-सामाणा यऽत्थ दुवे अणवण्णिदा अणवण्णियकुमाररायाणो परिवसंति महिड्डीया जहा काल-महाकाला (सु. १८९ [२] )।
[१९३-२] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में दोनों अणपर्णिकेन्द्र अणपर्णिककुमारराज–सन्निहित और सामान निवास करते हैं, जो कि महर्द्धिक हैं, (इत्यादि सारा वर्णन सू. १८९-२ में वर्णित) काल और महाकाल की तरह (समझना चाहिए।)
१९४. एवं जहा काल-महाकालाणं दोण्हं पि दाहिणिल्लाणं उत्तरिल्लाण य भणिया (सु. १९० [२], १९१ [२]) तहा सन्निहिय-सामाणाई णं पि भाणियव्वा। संगहणिगाहा
अणवन्निय १ पणवनिय २ इसिवाइय ३ भूयवाइया चेव ४। कंद ५ महाकंदिय ६ कुहंडे ७ पययदेवा ८ इमे इंदा ॥१५१॥ सण्णिहिया सामाणा १ धाय विधाए २ इसी य इसिपाले ३। ईसर महेसरे या ४ हवइ सुवच्छे विसाले य ५॥१५२॥ हासे हासरई वि य ६ सेते य तहा भवे महासेते ७ ।
पयते. पययपई वि य ८ नेयव्वा आणुपुव्वीए ॥१५३॥ _[१९४] इस प्रकार जैसे दक्षिण और उत्तर दिशा के (पिशाचेन्द्र) काल और महाकाल के सम्बन्ध में जैसे (क्रमशः सूत्र १९०-२ और १९१-२ में) कहा है, उसी प्रकार सन्निहित और सामान आदि (दक्षिण और उत्तर दिशा के अणपर्णिक आदि देवों के समस्त इन्द्रों) के विषय में कहना चाहिए।
[संग्रहणी गाथाओं का अर्थ-] (वाणव्यन्तर देवों के आठ अवान्तर भेद-) १. अणपर्णिक, २. पणपर्णिक, ३. ऋषिवादिक, ४. भूतवादिक, ५. क्रन्दित, ६. महाक्रन्दित, ७. कुष्माण्ड और ८. पतंगदेव । इनके (प्रत्येक के दो-दो) इन्द्र ये हैं— ॥१५१ ॥ १. सन्निहित और सामान, २. धाता और विधाता, ३. ऋषि और ऋषिपाल, ४. ईश्वर और महेश्वर, ५. सुवत्स और विशाल ॥१५२॥ ६. हास और हासरति, तथा ७. श्वेत और महाश्वेत, और ८. पतंग और पतंगपति क्रमशः जानने चाहिए॥१५३॥
विवेचनसमस्त वाणव्यन्तर देवों के स्थानों का निरूपण—प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १८८ से १९४ तक) में सामान्य वाणव्यन्तर देवों तथा पिशाच आदि उनके मूल आठ भेदों तथा अणपर्णिक आदि आठ अवान्तर भेदों एवं तत्पश्चात् इनके दक्षिण और उत्तर दिशा के देवों तथा इन सोलह के प्रत्येक के दो-दो इन्द्रों के स्थानों, उनकी विशेषताओं, उन सबकी प्रकृति, रुचि, शरीर-वैभव, तथा अन्य ऋद्धि आदि का स्पष्ट वर्णन किया गया है। ज्योतिष्कदेवों के स्थानों की प्ररूपणा
१९५. [१] कहि णं भंते! जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! जोइसिया देवा परिवसंति ? १. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १., पृ. ६४ से ६७ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ९६-९७